ऐतिहासिक पृष्ठ


दूरियाँ हुईं दूर

वर्ल्ड वाईड वेब का कमाल

प्रो.यश पाल

अनुवाद : संतोष शुक्ला

वर्ल्ड वाईड वेब की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यह अलग-अलग भाषाओं व बोलियों वाले व्यक्तियों को आपसी सम्पर्क की सुविधा प्रदान करता है। वे जानकारियों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। वेब में सभी व्यक्तियों को समान दर्जा प्राप्त है कोई भी श्रेष्ठ या सर्वोत्तम नहीं है। यहाँ सभी को विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है किसी भी प्रकार का सांस्कृतिक भेदभाव नहीं है वेब स्वयं ही एक सार्वभौम संस्कृति है।
हालांकि संभवतः हम अभी ऐसी स्थिति तक नहीं पहुँच पाये हैं जहाँ कि ऊपर लिखी समस्त बातें सत्य हों लेकिन उपरोक्त स्थिति तक बहुत जल्दी ही पहुँचने की संभावना है। आज जिस व्यक्ति का हम सम्मान कर रहे हैं उसने तकनीकी आविष्कार से कहीं बहुत बड़ा काम किया है। उसके आविष्कार ने एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति को जन्म दिया है। लोग अक्सर उसके इस योगदान को भूल जाते हैं। जिन लोगों ने ॅमंअपदह जीम ॅमइ किताब नहीं पढ़ी है उन्हें अतिशीघ्र इस पुस्तक को पढ़ डालना चाहिये। मेरी राय में समाज शास्त्र राजनीति शास्त्र तथा मानविकी विषय के छात्रों के लिये इस पुस्तक को पढ़ना अनिवार्य होना चाहिये।
इस व्यक्ति की उपलब्धियों को भली प्रकार न तो वैज्ञानिक ही समझ पाये हैं न ही बिजनेसमेन। आज मैं ‘‘टिम’’ की उपलब्धियों व योगदान के पीछे कार्यरत शक्ति के संबंध में कुछ कहूँगा। मैंने अपनी जिन्दगी तथा विज्ञान एवं तकनीक के अनुभवों से यह सीखा है कि ज्ञान को सामाजिक विकास के लिये उपयोगी होना आवश्यक है। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जिन्दगी में हम बहुत दूर तक नहीं चल पायेंगे यदि हम भेदभाव रहित समानान्तर सामाजिक नेटवर्क की विश्वव्यापी स्थापना नहीं कर पायेंगे।
लगभग २५ वर्ष पूर्व जब मैं पार्टिकल फिजिक्स तथा हाई एनर्जी एस्ट्रोनॉमी के क्षेत्र में ब्म्त्छ में कार्य कर रहा था उसी समय टिम भी वहाँ पर वेब के महत्वपूर्ण अंगों के बारे में सोचने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने में व्यस्त थे। भारत जैसे देश में जहाँ कि आधारभूत सुविधाओं का अभाव है वहाँ दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से सम्पर्क स्थापित करने व जानकारियाँ पहुँचाने में अंतरिक्ष विज्ञान की खोजों व प्रसारण व्यवस्था से मैं पहले से ही अभिभूत रहा हूँ। मुझे लगता है कि वेब तकनीक हमारे जैसे देशों को ध्यान में रखते हुए ही विकसित की गई और इसी बात ने अहमदाबाद में स्थापित हो रहे स्पेस एप्लीकेशन सेंटर जो कि उपग्रह संचार को उपयोग करते हुए पहला बड़ा सामाजिक तकनीकी प्रयोग था से जुड़ने के लिये मुझे प्रेरित किया। इसका उद्देश्य भारत के दूर-दराज के हजारों गाँवों में सीधे टी.वी। प्रसारण के द्वारा पहुँचना था। यह कुछ उस समय की बात है जबकि हमारे देश में दूरदर्शन का प्रसारण मात्र कुछ ही घंटों के लिये मुम्बई व दिल्ली तक सीमित था।
इस प्रयोग के पीछे तकनीकविदों सामाजिक विज्ञानियों संचार विशेषज्ञों की हजारों मानव वर्ष की मेहनत तथा नासा का उपग्रह ।ज्ै.६ शामिल थे। हालाँकि इस प्रयोग से भारत में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया लेकिन यह इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अनेक लोगों की जीवन शैली में परिवर्तन लाने में सफल रहा है। इस प्रयोग के दौरान भारत भर में फैले हजारों गांवों से सम्पर्क के जरिये हमने बहुत सारी बातें जानीं। दूरी की बाधा से निजात पाना जहाँ इसकी एक प्रमुख उपलब्धि थी वहीं विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में समस्याओं से निजात पाना तथा समस्त व्यक्तियों तक अपनी आवाज़ पहुँचाना या उनकी आवाज़ बन पाना एक चुनौती थी। अंतरिक्ष संचार आधुनिक युग की एक महत्वपूर्ण देन है तथा इसका उपयोग व्याख्यान देने सिद्धांतों का प्रदर्शन करने व विज्ञापनों के क्षेत्र में प्रभावी रूप से किया जा सकता है। इसका उपयोग कर बहुत सारी जानकारी जन सामान्य तक पहुँचाई जा सकती है लेकिन सही प्रकार की शैक्षणिक व विकासात्मक गतिविधियों को इसके द्वारा संचालित करने के लिये एक बेहतर संवाद व्यवस्था व भागीदारी की जरूरत होती है। दूसरी तरफ यह भी सच है कि लोगों को संचार माध्यमों द्वारा आपस में न जोड़ने पर उनके पिछड़ने व विश्व की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ जाने की संभावना है। जरूरत इन्हीं जटिल समस्याओं के हल ढूंढने की है।
मैं एक बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि एक छोटे समूह में मनुष्यों के मेल-जोल से उनके व्यक्तित्व के अनेक बेहतर पक्ष उभर कर आते हैं। क्रिस्टल व रत्नों का विकास भी स्थानीय कम क्षमतावान बलों की गतिविधियों द्वारा ही होता है। यही बात प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तत्वों व अणुओं के संदर्भ में भी लागू होती है। सब बातों को छोडि़ये और जीवन के लघुतम अणु क्छ। की स्थिति के बारे में थोड़ा सोचिये। भाषा मनोरंजन संगीत प्लास्टिक निर्मित सुंदर कला भवन शैली यहाँ तक कि विज्ञान भी आज वहाँ नहीं पहुँच सकता था यदि लोगों ने आपस में बैठकर उसके बारे में बातचीत न की होती। ऐसा नहीं है कि यह बात सिर्फ प्राचीन काल के लिये ही लागू होती है। आज जिन शैक्षणिक केन्द्रों को महान कहा जाता है वे सिर्फ इसलिये महान बने हैं क्योंकि मनुष्यों ने उनके बारे में चर्चा की है। कोलंबिया डप्ज् हार्वड आदि इसके उदाहरण हैं और लोग इनमें आना चाहते हैं। हालांकि आज इन संस्थानों के विशेषज्ञों द्वारा लिखित पुस्तकें व पेपर छपे रूप में या इंटरनेट पर व पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं और इनकी प्रसिद्धि में अपना योगदान दे रहे हैं लेकिन मनुष्यों द्वारा आपस में की गई प्रशंसा इनकी प्रसिद्धि का आज भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। मेरे देश में सदियों से यह माना जाता रहा है कि किताबों व व्याख्यान दे देने मात्र से ज्ञान वांछित व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता है। इसके लिये शिक्षक व छात्र के मध्य पारस्परिक संबंध व तालमेल होना आवश्यक है। हमारे यहाँ यह परम्परा प्राचीनकाल से ही ‘‘गुरु-शिष्य परंपरा’’ के नाम से चली आ रही है। टिम की तरह ही मैं भी इस बात को मानता हूँ कि प्रतिभाशाली मनुष्य पूरे विश्व में हर क्षेत्र में मौजूद हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि नये ज्ञान व नयी चीजों के निर्माण में बहुत बड़ी संख्या में व्यक्तियों की सहभागिता संभव नहीं है। इसीलिये आज हम ऐसे विश्व में निवास करते हैं जहाँ कुछ लोग नई दिशा में कार्य करते हैं और शेष व्यक्ति उसी दिशा में चलते हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि उन्हें अपनी सोच के आधार पर विश्व में सृजन का अधिकार प्राप्त है। यह स्थिति पूरे विश्व में विद्यमान है। चाहे वह देशों के मध्य हो उत्तर व दक्षिण के बीच हो यहाँ तक कि यही सोच विभिन्न जाति धर्म रंग महिला पुरुषों तथा देशों के शहरों में मौजूद है।
मैंने अपनी पुस्तक में भी जिक्र किया है साथ ही मेरा यह भी मानना है कि वेब की मूल भावना ऐसी होना चाहिये जिससे कि विश्व इस सीमित सोच से मुक्त हो सके। यदि वेब ऐसा हो सका तो पूरे विश्व का भला होगा। ऐसा करके हम नयी दिशाओं में विभिन्न प्रकार के अनुसंधान व खोज को बढ़ावा देंगे साथ ही भिन्न-भिन्न वातावरण में उपलब्ध ज्ञान की गहराई को समझ पायेंगे तथा उनका लाभ उठा सकेंगे। इसके साथ ही पूरे विश्व में एक वैचारिक परिवर्तन भी आयेगा जिससे कि सद्भावना समानता से परिपूर्ण एक सार्वभौम विश्व का निर्माण होगा जैसा कि हम चाहते हैं। मैं वर्तमान में अपने इस विचार को विस्तार दे रहा हूँ।
अब मैं थोड़ा पीछे चलता हूँ। मेरा ऐसा मानना है और शायद आप भी इस बात से सहमत होंगे कि एक सीमित दायरे में सीमित व्यक्तियों से सम्पर्क या निकटता बनाना मनुष्य के नैसर्गिक स्वभाव का एक हिस्सा है। मैं एक बार फिर से अपनी बात दोहराना चाहूँगा कि आपसी सम्पर्क या निकटता ही मानवता के गुणों का विकास करती है। बिना आपसी सम्पर्क के हमारे बीच कोई प्यार नहीं होगा कोई कला नहीं होगी बधाईयाँ देने के मौके नहीं होंगे कोई त्यौहार नहीं होंगे समारोह नहीं होंगे तात्पर्य यह कि संभवतः कुछ नहीं होगा।
विशिष्ट सामाजिक वातावरण के अंतर्गत प्रचलित पौराणिक कथाओं कल्पित कहानियों तथा सामाजिक उत्थान के परिणाम स्वरूप व्यक्तियों के मध्य आपसी सम्पर्क व निकटता में वृद्धि हुई है। इस परम्परा को हमें बनाये रखना है। हमें अपने निकटस्थ व्यक्तियों की देखभाल करने के लिये ही बनाया गया है। हम अपने लोगों के बीच अपने आपको अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं। यही तत्व हमें परिभाषित करता है तथा सामाजिक रूप से ‘‘हम’’ की सीमा रेखा तय करता है। इसी ‘‘हम’’ के द्वारा हम अपने राष्ट्र धर्म भाषा परम्परा जैसे शब्दों को परिभाषित कर पाते हैं। मानव समाज के लिये कुछ कर गुजरने व उनकी बेहतरी की तमन्ना ने ही महान व्यक्तियों राष्ट्रभक्तों राष्ट्र नेताओं विजेताओं अत्याचारियों तानाशाहों व आजकल के आतंकवादियों को जन्म दिया है। वर्तमान में हम अनेकों बंधनों में बंधे हुए हैं और हमें अपनी तरक्की के नये रास्तों को इस सदी में खोजना है। मैं बहुत ही छोटी समय सीमा में एक अलग प्रकार का क्रांतिकारी कार्य सम्पन्न करना चाहता हूँ वो इसलिये क्योंकि समस्याएं बढ़ गई हैं और इनके निदान के लिये गहमा-गहमी भी जारी है। जबकि कुछ समय पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी।
मारकोनी जन्मशती के समय मारकोनी फाउन्डेशन द्वारा मारकोनी फैलो हेतु एक सेमीनार का आयोजन किया गया था। उस समय भी मैंने मॉरकोनी के सपनों जो कि रेडियो के जन्म के १०० वर्षों बाद भी पूरे नहीं हो पाये हैं के बारे में दुख प्रकट किया था। मैंने उस समय भी जिक्र किया था कि पिछले १०० वर्षों में हमने युद्ध व गृह युद्धों में लगभग बुद्ध व ईसा मसीह के समय विश्व की जनसंख्या के बराबर मनुष्यों को परलोक पहुँचा दिया है। मेरे कई मित्रों को मेरे अनुमान के बारे में अविश्वास होता है कि इतने कम लोग हिंसा में मारे गये हैं।
अंतरिक्ष युग के आगमन के उपरांत भी जैसी मुझे व मेरे जैसे लोगों को उम्मीद व आशा थी वैसा सहिष्णु एक दूसरे के लिये आदर व प्यार से परिपूर्ण ब्रम्हांड कहीं नज़र नहीं आता है। फ्रेड हॉयल रविन्द्र नाथ टैगोर टिस्लोक्वास्की तथा अनेक अन्य व्यक्तियों ने इस बात को कहा है कि मनुष्य ने अब बाह्य अंतरिक्ष से हमारी इस खूबसूरत दुनिया को देख लिया है तथा उन्होंने हमारी एकाकी मिलनसारिता को भी देख लिया है। भविष्य में कुछ नयापन आ सकता है समाज में खुलेपन का विचार आ सकता है। एक दूसरे पर निर्भरता का स्थान स्वयंसिद्धि ले सकती है तथा मनुष्य केवल अपने घर तक केन्द्रित हो सकता है। संचार व्यवस्था के फैलाव के कारण समाज में कुछ ऐसा ही प्रभाव आने की संभावना है। लेकिन हो बिल्कुल ही उल्टा रहा है। जिस गति से संचार के साधनों का विकास हो रहा है उसी गति से वर्ग संघर्ष व धार्मिक उन्माद विश्व में बढ़ता ही जा रहा है। हम ये जानते हैं कि अस्थाई प्रकार के अद्भुत विचार हमें हमारी मूल जैविक उत्तेजना जिसने कि ‘‘हमें’’ दूसरों से अलग पहचान रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है से दूर नहीं ले जा पाते हैं। अनेक उत्तेजनाएं मानव द्वारा अपनी पहचान को अलग दिखाने की चाहत के कारण जन्मती हैं उनके पीछे गहरी सोच का अभाव होता है। जैसे कि किसी भी वस्तु के पैकेट पर अंकित नाम व पैकेट का रंग ही हमें बाहर से दिखाई देता है अंदर की वस्तु को बाहर से हम देख नहीं पाते हैं। इन्हीं बाहरी दिखावों और आडम्बरों ने मनुष्य को नई राह दिखाने वाले व्यक्तियों का दुश्मन बना दिया है। कोला टूथपेस्ट तथा अन्य उत्पादों के विभिन्न ब्रांडों को बेचने के लिये जिन तकनीकों का उपयोग किया जाता है वे उत्पाद विशेष के लिये कुछ राष्ट्रभक्त प्रकार के व कुछ आतंकवादी प्रकार के व्यक्ति निर्मित कर देती है। कभी-कभी सर्वाधिक सामाजिक प्राणी मनुष्य भी मानवता का दृष्टिकोण छोड़ अति घृणित कार्यों में संलग्न हो जाता है। मैं इस प्रकार के पूरे विश्व के कितने ही उदाहरण गिना सकता हूँ मेरा देश भी इससे अछूता नहीं है।
एक और निराशाजनक तथ्य है। पिछले १०० वर्षों में विश्व के बारे में हमारी समझ में काफी इजाफा हुआ है तथा हमने बहुत कुछ जाना व समझा है। यह एक चमत्कार की तरह लगता है। मानसिक प्रसन्नता व बौद्धिक आनंद ने हमारे अंदर यह अहसास भर दिया है कि हम मानव इतिहास के एक महत्वपूर्ण दौर के साक्षी हैं। वर्तमान में पूरा विश्व ग्रह तारे नक्षत्र सूर्य या कहें तो पूरे ब्रह्मांड के रहस्यों को लगभग खोजा जा चुका है। हम जीवन की अद्भुत घटनाओं को तथा उस भाषा को पूरी तरह समझ गये हैं जिसमें कि इन विविधताओं व गाथाओं को लिखा गया है। प्रौद्योगिकी की हर छलाँग हमारे रहन-सहन संवाद व जीवन पद्धति को परिवर्तित कर देती है। अनगिनत करिश्मे हो चुके हैं तथा वे आगे भी होते रहेंगे। हम ऐसे समाज के निर्माण में लगे हैं जो कि कौशल से परिपूर्ण हों तथा जिसमें कार्य करने की गति प्रकाश की गति के समान हो। लेकिन हमारी मनःस्थिति आज भी पहले जैसी ही है। हम आज भी बचपन में सिखाये गये ‘‘स्वयं’’ व ‘‘दूसरे’’ के सिद्धांत से नियंत्रित होते हैं। हमारा मस्तिष्क ४ बिलियन वर्षों के विभिन्न दौरों घटनाओं व अवस्थाओं से गुजर कर परिष्कृत हो वर्तमान अवस्था में आया है। हालांकि यदि हम अपने इतिहास को गौर से देखें तो हमें अपने वर्ग क्षेत्र व धर्म के आधार पर किये गये मूर्खतापूर्ण कत्यों का अहसास भी होता है। जबकि मेरा यह मानना है कि हजारों वर्ष पूर्व जब विभिन्न धर्मों का उदय हुआ था तब इस प्रकार के अज्ञानता भरे कत्यों के लिये कोई स्थान नहीं था। आज पुराने सिद्धांतवादी तत्व हमारे बचपन से दूर हो गये हैं। हमारे मानवीय मूल्यों में बेहतरी लाने व आपसी समझ बढ़ाने के लिये इस परिस्थिति को बदलने की आवश्यकता है तभी हम पुराने मंदिर व मस्जिदों के फेर में पड़कर एक दूसरे के खून के प्यासे होना बंद करेंगे।
आधुनिक समय के विचारणीय विषय
अब मैं इस अंतहीन बहस के मुद्दे से हटकर अपने मूल प्रश्न अर्थात् एक सार्वभौम विषय की संरचना की आवश्यकता पर आता हूँ। मैं इसकी आवश्यकता सिद्ध करने पर अधिक समय लगाना नहीं चाहता। वर्तमान सभ्यता का इसके बिना भविष्य ही नहीं है। समाज में आ रहे वैचारिक परिवर्तन के इस दौर में इस प्रकार की एक व्यापक संरचना अति आवश्यक है। हो सकता है कि हमारी वर्तमान स्थिति को और बेहतर बनाने के लिये कुछ नये आविष्कार भी हमें करने पड़ें। मैं यह भी मानता हूँ कि विश्व के समस्त मनुष्य बराबरी से पूर्णता को प्राप्त कर लें यह संभव नहीं है। सार्वभौमिकता का पूर्णता या बराबरी से सीधा संबंध नहीं है। न ही इसमें किसी प्रकार का धर्मार्थ सम्मिलित है। यहाँ खुद के हितों को भली प्रकार समझना व विकास की इच्छाशक्ति सर्वोपरि है। इसके संबंध में मेरा सूत्र मैं कुछ इस प्रकार से दुनिया के सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ।
    छव पदकपअपकनंसए दव ीनउंद बवससमबजपअपजलए दव बवनदजतलए दव चतवमिेेपवदंसए दव बवतचवतंजपवदए पदकममक दव वदम ेींसस इम वदसल वत इम उंकम पदजव वदसल ं बवदेनउमत
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को करीब से देखने के कारण मैंने इससे बहुत कुछ सीखा है। हमारे सबसे बड़े नेता थे मोहनदास करमचंद गाँधी। वे पूरे देश की नब्ज पहचानते थे। पूरा देश उनके दिखाए मार्ग पर चलता था। वे आज के दौर की तरह के राजनैतिक नेता नहीं थे। हालांकि बहुत सारे नौजवान उनकी अनेक बातों से सहमत नहीं थे लेकिन वे भी इस बात को स्वीकारते हैं कि महात्मा गाँधी देश के लिये सिर्फ स्वतंत्रता नहीं चाहते थे वरन वे जन्मभूमि से प्यार करने वाले व्यक्तियों के लिये आजादी चाहते थे। इसी के साथ-साथ वे हम पर शासन कर रहे व्यक्तियों की उन्नति के भी समर्थक थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन उन्होंने जो भी कार्य किये वे किसी धार्मिक नेता की तरह नहीं किये। जब कभी भी उन्होंने धर्म की बात की सिर्फ एक धर्म की बात नहीं की। उन्होंने हर प्रकार के विचारों को ग्रहण किया। उनका मूल उद्देश्य देश के लोगों को आजादी दिलाना व एक ऐसे समाज की स्थापना करना था जो कि सार्वभौम विश्व के निर्माण की दिशा में पथ प्रदर्शक का कार्य कर सके। मुझे ऐसा भी लगता है कि उनके इस दृष्टिकोण को उनके बाद के वे नेता नहीं समझ सके जिन्होंने कि भारत पर शासन किया। ऐसा शायद इसलिये हुआ होगा कि इतिहास के उस दौर में उनकी गहरी किन्तु साधारण सी दिखने वाली बातों के लिये स्थान नहीं था। मैं आज उनका जिक्र यहाँ इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि गाँधी समय से पहले इस धरती पर आ गये थे। आज उनके विचार अवश्य सार्थक होते। टिम तथा आप में से अनेक लोगों ने उनके विचारों को सार्थक किया है। इसी से जुड़े कुछ और तथ्य मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
गाँधी जी ने ग्राम स्वराज के संबंध में विचार रखे थे। इसके अंतर्गत दूर से किसी भी प्रकार के नियंत्रण से मुक्त व्यवस्था का निर्माण करना था। यहाँ विचारों और कार्य की स्वतंत्रता की व्यवस्था की गई थी। आप अपना रास्ता स्वयं चुनकर आगे बढ़ सकते थे इस पर किसी प्रकार का दूरस्थ नियंत्रण नहीं था। उनके विचार में नैतिक रूप से व्यक्ति को सिर्फ उपभोक्ता नहीं होना चाहिये। वे अधिकाधिक व्यक्तियों के द्वारा उत्पादन के पक्षधर थे न कि बड़ी मशीनों द्वारा अधिक उत्पादन के। जहाँ तक ज्ञान का प्रश्न है वे इस बात को मानते थे कि आसपास के वातावरण के साथ साक्षात्कार व सामाजिक आवश्यकताओं को समझ कर उनकी निर्माण प्रक्रिया में सम्मिलित हो बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस प्रकार की शिक्षा को जब किताबी ज्ञान का सहारा मिल जाता है तब वह व्यक्ति विद्वानों की श्रेणी में आ जाता है। आज भी यदि ऐसी शिक्षा पद्धति को अपनाया जाता है तो उत्तम होगा। उन्हें पिछली पीढ़ी का पहला पर्यावरणवादी माना जा सकता है। उन्होंने कहा था कि इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता के लिये पर्याप्त संसाधन हैं लेकिन प्रत्येक व्यक्ति की लोलुपता पूर्ण करने के लिये यह नहीं है। यह भी सत्य है कि हम महात्मा गाँधी के प्रत्येक विचार को शब्दशः नहीं ले सकते हैं लेकिन उनके बताए रास्तों पर चलने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। यह भी सत्य है कि दूर से किये जाने वाले नियंत्रण से वास्तविक आजादी छिन सी जाती है। जब तक समाज में व्यक्ति वस्तुओं व सेवाओं के बदले दूसरों से कुछ वस्तु व सेवा प्राप्त न करें तो वे एक प्रकार के आर्थिक व सांस्कृतिक प्रदूषण व शोषण के शिकार हो जाते हैं। बहुत सारा ज्ञान मौखिक रूप से व उंगलियों के जरिये पुराने समय में हम प्राप्त करते थे और आज भी कर रहे हैं। उनके समस्त विचार अहिंसा से ओतप्रोत थे। गाँधी जी के समय उपलब्ध तकनीकी आकार में बहुत विशालकाय थी उन्हें आसानी से विकेन्द्रीकत करना सम्भव नहीं था। जबकि वर्तमान समय में ऐसा नहीं है। आज सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर दोनों के ही उत्पादन को आसानी से विकेन्द्रीकृत किया जा सकता है। सूचना आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं तथा प्रयुक्त की जा सकती हैं। आज आपको सूचना के आदान-प्रदान हेतु उस स्थान तक जाने की जरूरत नहीं है। आप जैसे चाहें वैसे रह सकते हैं और सारी दुनिया से सम्पर्क में भी रह सकते हैं। आप आवश्यकतानुसार अपनी गति तथा आपसे सम्पर्क रखने वालों की गति बदल सकते हैं। गाँधी जी का नारा ‘‘अधिकाधिक व्यक्तियों द्वारा उत्पादन न कि मशीनों द्वारा अधिक उत्पादन’’ आज फलीभूत हो सकता है। यदि विश्व को एक ‘‘जेहाद’’ चाहिये तब यहाँ लोगों को यह समझना होगा कि यही एक मात्र तरीका है जो लोगों को एक रख सकता है उनकी विभिन्नताओं को बचाकर रख सकता है तथा व्यक्तियों को पूर्णता व आनंद की ओर ले जा सकता है। इन सबके लिये एक सर्वोत्तम तकनीक की आवश्यकता होगी। लोग अब सिर्फ मेंढ़क के समान अपने कुएं में नहीं रहना चाहते हैं। वे आपस में एक व्यवस्था के तहत शेष विश्व से जुड़े रहना चाहते हैं। इसके लिये नीचे से ऊपर तक एक बड़े प्रयास की जरूरत है। मुझे नहीं मालूम है कि कौन इस चुनौती को अंगीकार करेगा। हालॉकि गाँधी जी एक शताब्दी पूर्व इस धरती पर आ गये थे लेकिन अब टिम और उनके मित्र इसे सफल बनायेंगे।
अंत में संक्षेप में कहूँ तो आज विश्व के सामने जो प्रमुख चुनौतियाँ हैं वे हैं- जैसे-जैसे विश्व तीव्र गति से वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) की तरफ बढ़ रहा है वैसे-वैसे आत्मीयता का ह्रास होता जा रहा है जो कि मानवता का एक महत्वपूर्ण अंग है। आत्मीयता व संवेदनाओं के कारण ही संगीत कला भाषा मूल्यों संस्कृति व अन्य मनोरंजक प्रवृत्तियों का निर्माण हुआ है।
यदि इनमें से किसी पर कुठाराघात होता है तब वह पूरी मानवता पर कुठाराघात होता है। जिस तरह से हमारी शारीरिक प्रणाली के रक्षक तत्व बीमारी के हमले के समय उससे स्वतः ही मुकाबला करते हैं उसी तरह यदि ऊपर वर्णित तत्वों के साथ छेड़छाड़ होती है तब स्वभाविक रूप से अनेक बार उग्र प्रतिक्रिया होती है। और कभी-कभी यही आतंकवाद को जन्म देता है। मेरा यह भी मानना है कि आधुनिक आतंकवाद का हल सैनिक कार्यवाही से कतई संभव नहीं है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के समानान्तर इसका भी फैलाव होता गया है जैसे कि मेरे एक मित्र कहते हैं कि विश्व का ‘‘कोला-नाइजेशन’’ हो गया है। इससे विश्व में सांस्कृतिक आघात के साथ-साथ आर्थिक परिणाम भी परिलक्षित हुए हैं। गाँधी जी द्वारा इन सभी के बारे में पहले से ही सोच लिया गया था। अब बिना आर्थिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को छेड़े हुए एक अलग प्रकार का वैश्वीकरण संभव हो गया है। वैश्वीकरण के अब नये नियम बनाये जा सकते हैं। मनुष्य अब एक साथ अलग-अलग रह सकते हैं। उन पर अपना स्वयं का नियंत्रण होगा तथापि वे पूरे विश्व व ब्रह्मांड के साथ नेटवर्क में जुड़े होंगे। इसके लिये तकनीक व साधन अब उपलब्ध हैं। यही मेरे द्वारा चाही गई एक सार्वभौम विश्व की संकल्पना है। एक बात और तय है वह यह कि इसके लिये वेब को उन क्षेत्रों में भी पहुँचाना हंोगा जहाँ वह अभी नहीं पहुँचा है। वैसे यदि हम कम्प्यूटर आधारित वेब के साथ-साथ विभिन्नता युक्त मानव वेब निर्मित कर पायें तो वह अधिक श्रेयस्कर होगा।

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