ऐतिहासिक पृष्ठ


जिन्होंने विज्ञान की इबारत गढ़ी

वे वैज्ञानिक जिन्होंने विज्ञान की नई इबारत गढ़ी और जिनका इस माह जन्मदिन मनाया जाता है उनकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। कई नाम तो ऐसे हैं जिन्हें रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान तथा जैव विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला। एक सरसरी नजर डालें तो उनकी की चर्चा कुछ इस प्रकार हो सकती है - इर्विंग लैंगम्यूर, अर्टयूरी इलमारी विर्टानन, ऑटो पाल हरमान डील्स, जान चार्ल्स पोलान्यी, विलहेम वीन, हिदेकी युकावा, पोलीकार्प कुश, रूदोल्फ लुडविग मॉसाबौर, ब्रिआन डी. जोसेफसन, सैम्युअल सी.सी. टिंग, राबर्ट वुडरो विल्सन, अब्दुस्सलाम, जोसफ एर्लांगार, मैक्स थीलर, सर जान कैरयू एक्लेस, कोनाराड ब्लोच, राबर्ट विलियम होल्ली, हरगोविन्द खुराना,स्यून के. बर्गस्ट्राम, गरट्रयूड बेली एलिअन आदि। इसके अतिरिक्त राबर्ट बॉयल, आइजक न्यूटन, जेम्स वॉट और सत्येन्द्रनाथ बसु के नाम विज्ञान के फलक पर चमकदार नक्षत्रों की तरह हैं। ये चारों नाम ऐसे हैं जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में नई अवधारणा तथा मूल्यों को स्थापित किया और पुरानी मान्यताओं पर नये सिरे से विचार किया। उनके द्वारा स्थापित मूल्यों की ही परिणति है कि उन्हीं के नाम पर कई सिद्धांत, मूल्य, सूत्र, समीकरण और तत्वों को जाना जाता है।]

 

 

पदार्थों की शुद्धता के प्रति

सजग परंपरा की शुरुआत बॉयल से

आधुनिक रसायन विज्ञान के जनक कहे जाने वाले राबर्ट बॉयल का जन्म 25 जनवरी 1627 को आयरलैंड में हुआ था। वे अपने माँ-पिता की पन्द्रह संतानों में चौदहवे थे। पिता रिचर्ड बॉयल उस समय आयरलैंड के धनाड्य व्यक्ति थे अतः उन्हें ‘अर्ल ऑफ कर्क’ या ‘महान अर्ल’ के नाम से जाना जाता था तथापि राबर्ट ऑयल का बचपन और कैशौर्य घर से दूर एटन में बीता जहाँ रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई की। इस पढ़ाई के बाद 1638 में वे अपने भाई फ्रांसिस और मर्कोम्बस के साथ फ्रांस और इटली की यात्रा पर निकले। इस यात्रा के दौरान उन्होंने गैलीलियो के कार्य का अध्ययन किया। वे जेनेवा में भी रहे। चूंकि यह समय उनके जीवन का एक विरल समय था अतः इस दौरान उन्हें अपने शिक्षक की कमाई पर निर्भर रहना पड़ा। इसी बीच उनके पिता की मृत्यु भी हुई। जब वे इंग्लैड लौटे तो उन्होंने अपने राज्य को बहुत अस्त-व्यस्त पाया। बॉयल इस अव्यवस्था से बहुत विचलित हुए। उनका विचलन उन्हीं के एक पत्र में मुखरित होता है- सन् 1644 के बीच मैंने इंग्लैंड में प्रवेश किया। मेरा आगमन बहुत सुरक्षित था किन्तु परिस्थितियाँ भ्रामक थीं। पिता के निधन के बाद स्टालब्रिज की जागीर का मैं उŸाराधिकारी था और यह सोचने जैसा था कि मैं वहाँ चार माह के पश्चात जा सका।

बॉयल ने स्टालब्रिज में रहकर कुछ समय तक धार्मिक और दार्शनिक लेख लिखे। उन्होंने गद्य और पद्य में रचनाएं कीं। प्राकृतिक दर्शन, यांत्रिकी और कृषि कर्म जैसे अन्य मानविकी विषयों का अध्ययन किया। एक तरह से यह उनके प्रायोगिक होने की पीठिका थी जिसके चलते वे वैज्ञानिक प्रयोगोें और रसायन के महान रहस्यों की ओर उन्मुख हुए। 1649 में बॉयल की रुचि विज्ञान के प्रयोगों की ओर गहराई। उन्होंने हेल्मोंटियक रसायन के प्रयोगों की जानकारी ली और वे सार्विक विलायक एवं पारस पत्थर की खोज के पथ पर बढ़े।

बॉयल ने कई महत्वपूर्ण प्रयोग किए। उन्होंने यह बताया कि ध्वनि के प्रसारण, श्वसन और दहन में वायु के केवल एक हिस्सा ही उपयोग होता है। एक अन्य प्रयोग के माध्यम से उन्होंने जाना कि दाब में दो गुनी वृद्धि करने पर गैस का आयतन आधा हो जाता है और दाब में तीन गुना वृद्धि पर गैस का आयतन एक तिहाई हो जाता है। इसी प्रयोग के आधार पर उनका प्रसिद्ध लेख ‘न्यू एक्पेरिमेंटस फिजिको-मेकेनिकल टचिंग द स्प्रिंग ऑफ दि एयर एंड इट्स इफेक्ट्स’ प्रकाशित हुआ। 1660 में प्रकाशित इस लेख के पुनर्संस्करण 1662 में उन्होंने अपना प्रसिद्ध नियम प्रतिपादित किया कि किसी गैस का दाब उसके आयतन का व्युत्क्रमानुपाती होता है। यदि दाब बढ़ता है तो आयतन घटता है और आयतन बढ़ता है तो दाब घटता है।

राबर्ट बॉयल एक तरह से प्रयोगों के आदी और अभ्यस्त रहे। बल्कि कहना होगा कि उनका सारा काम प्रयोगों के मार्फत ही लोगों तक पहुँचा। वे पहले लोकप्रिय और नामवर वैज्ञानिक थे जिन्होंने बहुत ही नियंत्रित स्थितियों में प्रयोग किए। उनका जोर हमेशा प्रक्रिया, यंत्र, उपकरण प्रेक्षण से जुड़े विवरणों में तादाम्य बैठाकर अपने अनुसंधान को प्रकाशित करना था।

ए डिक्शनरी ऑफ साइंटिस्ट में बॉयल से संदर्भित उल्लेख आता है-‘‘रसायन विज्ञान के क्षेत्र में बॉयल का मुख्य योगदान था, प्रयोग, गणना और यथार्थ प्रेक्षण पर उनका जोर देना। उन्होंने अम्ल-क्षार सूचक के रूप में वनस्पति रंजक के प्रयोग और धातु की पहचान के लिए ज्वाला परीक्षण जैसे कई विश्लेषणात्मक परीक्षण विकसित किए। किसी रसायनज्ञ का अपने पदार्थों की शुद्धता के प्रति सजग होने की परंपरा बॉयल से शुरू होती है।’’

1661 में प्रकाशित ‘द स्केप्टिकल किमिस्ट’ उनका सबसे प्रसिद्ध प्रकाशन था जो विश्व के श्रेष्ठतम प्रकाशनों में एक है। उन्होंने इसी के माध्यम से ‘रासायनिक विश्लेषण’ शब्द को विश्लेषित किया और उनके इस पारिभाषित तथ्य पर रासायन विज्ञान की आधारशिला रखी गई-‘द कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ साइंटिस्ट्स’ में रेखांकित किया गया है- ‘‘द स्केप्टिकल किमिस्ट के प्रकाशन के साथ ही बॉयल ने रसायन विज्ञान का एक अधिक आधुनिक दृष्टिकोण के लिए मार्ग प्रशस्त किया जिसने पूर्ववर्ती अरस्तू के चार रंगों के सिद्धांत और कीमियागिरी विचारों को दर किनार कर दिया तथा प्रीस्टले व लेवोसियर के द्वारा रासायनिक क्रांति का सूत्रपात किया।’’

 

ईश्वर ने कहा, ‘न्यूटन को आने दो’

और चारों ओर प्रकाश फैल गया

आइंस्टीन ने न्यूटन के बारे में लिखा है - ‘‘प्रकृति उनके लिए एक खुली किताब की तरह थी, जिसे वे बिना किसी प्रयास के पढ़ सकते थे। अनुभव से प्राप्त ज्ञान को शंृखलाबद्ध करके सरलतापूर्वक समझाने के लिये वह जिस धारणा का प्रयोग करते थे, वह उसी अनुभव से स्वतः ही प्रवाहित होती थी, उन सुंदर प्रयोगों से - जिन्हें उन्होंने खिलौनों की तरह व्यवस्थित किया और अत्यंत सुरुचिपूर्ण विस्तार के साथ जिनका विवरण प्रस्तुत किया। वह प्रयोगकर्ता, सिद्धांतवादी और यांत्रिक तो थे ही, एक कलाकार भी थे। वह हमारे काम में दृढ़ निश्चयी और एकल खड़े हैं। उनके लिखे प्रत्येक शब्दों और अंकों में उनके सृजन के आनन्द की सूक्ष्मतम परिशुद्धता की झलक मिलती है। वे सृजन में आनन्द प्राप्त करते थे और उनकी सूक्ष्म दृष्टि का पता उनके प्रत्येक शब्द और उनके प्रत्येक आंकड़े से प्राप्त होता है।’’

आइंस्टीन ने जो कहा वह बहुत कुछ कविताई सच की तरह है। हम उनके कहे पर गौर करें कि प्रकृति को सहजता से बाँधने वाला, अनुभूतिपरक ज्ञान की व्याख्या करने वाला, अपनी ही अवधारणा और मान्यता को प्रायोगिक ढंग से देखने वाला एक ऐसा व्यक्ति जो प्रयोगकर्ता, सिद्धांतवादी और यांत्रिक होने के साथ-साथ कलाकार भी हो, वह दृढ़ निश्चय के साथ हमारे सामने एकाकी खड़ा रहता है। ऐसे न्यूटन के लिखे शब्दों और अंकों में नये सृजन की परिशुद्धता और सूक्ष्म दृष्टि दिखती है।

इस कोमलता, पवित्रता और दृढ़ता से यदि किसी वैज्ञानिक की बात की जाए तो वह न्यूटन ही हो सकता है। उन्होंने अकेले ही विज्ञान-विकास में इतना सहयोग दिया कि वे अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों से बहुत आगे निकल गए। इसके पूर्व विज्ञान के फलक पर एक कुहासा जैसा था और अनुमान के आधार पर बहुत से मूल्य तथा अवधारणााएं मान्य थीं। एलेक्जेण्डर पोप ने लिखा है- प्रकृति व प्रकृति के नियम/रात के अंधेरों में गुम थे/ईश्वर ने कहा, ‘न्यूटन को आने दो’/और चारों ओर प्रकाश फैल गया।

न्यूटन सचमुच एक प्रकाशपुंज थे। उन्होंने विज्ञान के विविध विधियों तथा विधाओं में अस्पष्ट सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जिस पर कालान्तर में संयुक्त और व्यापक रूप से प्रयोग हुआ। उनकी पद्धतियां पूर्णतः तार्किक थीं। उनके द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक अन्वेषण के आधारभूत सिद्धांत मौजूदा दौर तक बगैर किसी बदलाव के रहे आए। वे मानते थे कि अस्तित्व की व्याख्या सत्यतापूर्वक और पूर्णरूप से होनी चाहिए और ऐसी कोई वजह नहीं है कि हम ऐसा न करें। चूंकि वस्तुओं की गुणवत्ता विस्तार लिए हुए सार्वभौमिक होती है और वह उनका परीक्षण प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर तब तक होना चाहिए जब तक कोई दूसरे साक्ष्य उसके विपरीत न हों तथा पूर्व मान्यताओं का खंडन न कर रहे हों। साथ ही अस्तित्व में विद्यमान वस्तुओं को समान वजहों से समान कारणों के लिए जिम्मेदार मानना चाहिए। इन मूलभूत बातों के चलते न्यूटन ने आने समय के सभी अनुत्तरित प्रश्नों के हल ढूँंढ निकाले। उनकी इस प्रणाली को वैज्ञानिक विधि कहा गया। फ्रैंकोइस मैरी एरोवेट डि वाल्टेयर के शब्दों में -‘‘न्यूटन ने लोगों के परीक्षण करना, तौलना, गिनना और मापना सिखाया, किंतु उन्होंने अवरोध की शिक्षा कभी नहीं दी। उसने जो देखा वही लोगों को दिखाया। उसका यह दिखना ‘सत्य’ का दिखाना था जिसके लिए वह अपनी कल्पना शक्ति को प्रश्रय दे सकता था जो कि उसने नहीं दिया।’’

न्यूटन का जन्म 4 जनवरी 1643 में पूर्वी इंग्लैंड के वुल्सथ्राय नामक कस्बे में हुआ। चंूकि कैथोलिक देशों में ग्रेगोरियन कैलेण्डर की शुरुआत 1582 में हुई इसलिए 25 दिसम्बर 1642 का पूर्व मानक ठहरता है। उनके पिता का नाम भी आइजक न्यूटन ही था। चूंकि उनका निधन न्यूटन के जन्म के कुछ माह पूर्व ही हो गया था अतः पिता की स्मृति में बालक का नाम भी आइजक न्यूटन ही रखा गया। यह बात बहुत ही मर्मस्पर्शी और रेखांकित करने वाली थी कि दो नामों की शक्ति अब एक अलहदा क्षेत्र में अग्रसर थी। जबकि इसके पूर्व 1645 में माँ हन्ना ने न्यूटन को अपने नाना के घर छोड़ दूसरा विवाह कर लिया था। न्यूटन क्लार्क नामक औषध व्यवसायी के परिवार में रह शिक्षा ग्रहण करने लगे। यहाँ उनकी शिक्षा ग्रीक तथा लैटिन साहित्य की हुई, साथ ही बुनियादी गणित में उन्होंने पढ़ाई की। यहीं एक उपद्रवी किन्तु मेधावी छात्र से पिटने के बाद न्यूटन को यह स्वप्रेरणा हुई कि वे भी कुछ कर सकते हैं। फलतः वे प्रतिस्पर्द्धा की ओर उन्मुख हुए और यह प्रतिस्पर्द्धा सकारात्मक थी। उन्होंने कुछ यांत्रिक उपकरण बनाए जिनमें पवन चक्की, जल घड़ी तथा धूपघड़ी प्रमुख थे और कालान्तर में यह भी प्रचलित हुआ कि उन्होंने ही चार पहिए वाली एक गाड़ी बनाई जिसे किसी चालक द्वारा चलाया गया। कहना होगा कि पहिए की ताकत को वे बहुत पहले ही भांप गए थे, उन्हें अनुमान था कि पहिए पर सवार होकर ही सभी तरह की कठिन और लम्बी यात्राएं आसान होंगी।

न्यूटन ने 1665-67 के आसपास कुछ नए विचार दिए। इसी दौरान उन्होंने गणना की गणितीय विधि ‘कैलकुलस’ की आधारशिला रखी जिससे जटिलतम समीकरणों के हल खोजने में वैज्ञानिकों की दक्षता में एक अपूर्व क्रांति का सूत्रपात हुआ। यही वह समय था जब न्यूटन ने गिरते हुए सेब को देखकर यह सोचा कि सेब को धरती पर खींचकर लाने वाला बल और चंद्रमा को अपनी कक्षा में बनाए रखने वाला बल कहीं एक ही तो नहीं? यह विचार या अवलोकन अरस्तू और उनके पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के द्वारा स्थापित मूल्यों से भिन्न और विरोधी था। पूर्व के वैज्ञानिक इस बात पर जोर देते थे कि पृथ्वी तथा आकाश मंडल पृथक नियमों से संचालित हैं, ये नियम समुच्चय जैसे हैं जबकि न्यूटन इसके उलट सोच रहे थे। उन्होंने कहा कि दो नहीं बल्कि सार्वभौमिक नियमों का एक ही समुच्चय होता है।

न्यूटन अद्वितीय मेधावान गणितज्ञ थे। स्विस गणितज्ञ जोहान बर्नूली ने 1696 में यूरोप के गणितज्ञों के लिए एक सवाल रखा। सवाल का हल ढूँढने के लिए छह माह का समय दिया गया किंतु न्यूटन ने रातभर में उसे हल कर लिया, साथ ही ‘ट्रांजेक्शस ऑफ दि सोसायटी’ नामक शोधपत्र में छपने को दिया। जब यह प्रकाशित हुआ तब लोग ने देखा कि इसमें हल करने वाले का नाम नहीं छपा है। लोग अचंभित और हैरान-परेशान थे। वे उत्सुक थे, उस व्यक्ति का नाम जानने को जिसने यह कठिनतर प्रश्न हल किया था। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जोहान बर्नूली जान गए थे कि वह कौन है। उन्होंने लेखक को पहचानते हुए कहा था, ‘‘मैंने शेर को उसके पंजों के निशान से पहचान लिया है।’’ इस तरह की और-और घटनाएँ हुईं तथा दास्तान बनी। ऐसा कहा जाता है कि कई नामचीन वैज्ञानिकों ने न्यूटन के सामने जटिल और कठिनतर प्रश्न रखे ताकि वे उन्हें अपमानित कर सकें लेकिन न्यूटन थे कि कम अवधि में ही उनका हल निकाल लेते थे। न्यूटन ने ही गतिशील बिंदु को प्रवाह और उसके वेग को प्रवाहन कहा। उनकी रचना ‘फिलॉसोफिए प्रिंसिपिया मैथेमेटिका’ अब तक प्रकाशित महान वैज्ञानिक कृतियों में एक है जिसके प्रकाशन ने वैज्ञानिक क्रांति को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। न्यूटन के गति के तीनों नियमों को उन्हीं के नाम से जाना जाता है और जिस गति से आज संसार विकास कर रहा है, ये वहां भी अभिप्रामाणित है। न्यूटन ने ही सर्वप्रथम किसी वस्तु के भार और द्रव्यमान के मध्य अंतर को स्पष्ट किया। उन्होंने चंद्रमा की गति के सिद्धांत और ज्वार-भाटा से संबंधित विश्लेषण किए। मानचित्र, भौतिकी, खगोलशास्त्र, यांत्रिकी और सार्वभौमिक गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को न्यूटन के नाम से ही जोड़कर देखा जाता है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ऑप्टिक्स’ में दर्शाया कि विभिन्न रंगों के वर्णक्रम में एक प्रिज्म द्वारा अलग किया जा सकता है। यूँ न्यूटन के बारे में कई दंतकथाएं हैं जिसमें उन्हें आलसी, उच्छृंखल और भुलक्कड़ बातया जाता है। खाना खाने के बाद दोस्त से गप्प लड़ाकर वे तुरंत भोजन के लिए आग्रह करते थे। घुड़सवारी के दौरान पैदल ही घर लौट आते थे। प्रत्यक्षदर्शियों के द्वारा अक्सर घोड़े को पीछे-पीछे बगैर घुड़सवार के आते देखा जाता रहा था। रात-रात भर पुस्तकें पढ़ना, खाना-पीना और स्नान करना भूल जाना उनके लिए आम बात थी। ऐसा कहा जाता है विलक्षण प्रतिभाएं ऐसी ही होती हैं - थोड़ी सी जुनूनी और थोड़ी-सी अस्वाभाविक। न्यूटन कुछ-कुछ ऐसे ही थे।

 

‘छुक-छुक’ से हमारा परिचय न होता

अगर जेम्स वॉट न होता

अभी कुछ दशक पूर्व तक बच्चे अपने आगे के साथी की कमीज पकड़कर जो रेलगाड़ी का खेल खेलते रहे, उस खेल की ‘छुक-छुक’ से हमारा परिचय न होता अगर जेम्स वॉट का जन्म न होता। जेम्स वॉट का जन्म 10 जनवरी 1736 को स्कॉटलैंड स्थित ग्रीनोक नगर में हुआ था। शहर समुद्र के किनारे था और वह खूब बतियाता था। सुविधाएं थीं और सुख भी। आठ भाई-बहनों का भरा-पूरा परिवार था-आनंद था। बावजूद इसके परिवार खतरनाक और गंभीर बीमारियों का शिकार था। भाई-बहन बचपन, कैशौर्य और युवा होते-होते चल बसे, जेम्सवॉट भी अक्सर बीमार ही रहता था। इन्हीं अनुकूल-प्रतिकूल हालात में जेम्स वॉट की परवरिश और शिक्षा हुई। चिंता जेम्स वॉट की सहचर थी और परेशान रखा करती थी। कुछ तकलीफें दिखाई देती थीं, कुछ नहीं। फलतः कौतुहल उसके स्वाभाव में आया। रहस्यों को देखना और उन्हें परखना, उन पर विचार करना जेम्स वॉट के जीवन का हिस्सा बने। यूँ ही एक दिन केतली में पानी उबलते हुए जेम्स वॉट ने देखा कि केतली का ढक्कन भाप के जोर की वजह से बार-बार ऊपर उठ रहा है। जेम्स वॉट ने भाप की शक्ति को इस घटना से पहचाना और कालान्तर में इस पर विचार तथा आविष्कार हुए।

अपनी संघर्षभरी जिंदगी में 18 वर्ष की आयु में वे आजीविका के लिए लंदन आए। बहुत मुश्किल से एक घड़ीसाज के पास उन्हें काम मिला, वह भी बगैर वेतन के। यह काम उन्हें अनुभव को दर्शाने का जरिया लगा जहाँ रहकर अन्य जगह काम करते हुए उन्होंने हुनर और अनुभव लिया। जब ग्लासगो विश्वविद्यालय में इन्हीं आधारों पर उन्हें नौकरी मिली तब उनकी उम्र 21 वर्ष हो गई थी। अपने हुनर, अनुभव, लगन और निष्ठा के बल पर यहां उन्होंने एक छोटी सी वर्कशॉप खोली जिसमें गणित के उपकरण, संगीत के उपकरण, यांत्रिक उपकरण सुधारने और बनाने का काम किया। इसी विश्वविद्यालय में उनका परिचय जोसेफ ब्लैक से हुआ जिन्होंने गुप्त ताप की खोज की थी। वे यहाँ रसायन शास्त्र पढ़ाते थे। एक अन्य प्रोफेसर जॉन रोबिनसन जो दर्शनशास्त्र के अध्येता और विद्वान थे, ने न्यूकोनमैन द्वारा बनाए भाप के इंजन का जिक्र किया। चंूकि जेम्स वॉट भाप की शक्ति के बारे में बचपन से है सोच रहे थे सो उन्होंने उनके कहने पर मरम्मत का काम करने की सहज इच्छा व्यक्त की।

काम शुरू हुआ, अट्ठाईस वर्षीय जेम्स वॉट ने देखा कि न्यूकोनमैन द्वारा बनाया गया इंजन बहुत धीरे-धीरे काम करता है। उसमें बहुत सारा ईंधन डालना पड़ता है और यह बहुत खर्चीला है। सूक्ष्म अध्ययन करने पर जेम्स वॉट ने पाया कि भाप इंजन के पिस्टन को दूसरी ओर धकेलती है। इसके बाद ठंडा पानी डालकर भाप को ठंडा किया जाता है और पिस्टन अपनी जगह पर वापस आ जाता है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है जिससे इंजन के गर्म होने तथा ठंडे होने की प्रक्रिया में काफी समय लगता है। जेम्स वॉट को समझने में देर नहीं लगी कि इस प्रक्रिया को तोड़ा जाना चाहिए, खासकर ठंडा करने वाली प्रक्रिया को, ताकि इंजन तेज गति से काम करे और उपयोगी सिद्ध हो। वे अपने अनुसंधान से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भाप को खाली बर्तन में ले जाया जाए और बर्तन को शून्य दबाब पर रखा जाए ताकि भाप पिघलकर पानी बन जाए। इस तरह सिलिंडर को ठंडा करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। इस विचार को क्रियांवित करते हुए उन्होंने भाप इंजन में एक कंडेंसर लगा दिया। कंडेंसर शून्य दबाव वाला था जिससे पिस्टन का सिलिंडर आसानी से ऊपर नीचे आने जाने लगा। इस शून्य दबाव को बनाए रखने के लिए उन्होंने हवा का एक पंप भी लगा दिया। पिस्टन की मजबूत पैकिंग, स्टीम टाइट बॉक्स, घर्षण रोकने हेतु तेल डालना, सिलिंडरी की केसिंग को ताप का कुचालक बनाना आदि प्रयोग करने के बाद जेम्स वॉट इस इंजन को लेकर मुतमईन हुए। इंजन अब बिक्री के लिए तैयार था, चार साल बीत गए थे।

जेम्स वॉट जब 1768 में बर्मिंघम आए तो उनकी मुलाकात मैथ्यू बुल्टन नामक एक उद्योगपति से हुई जिसकी सहायता से जेम्स वॉट को 1775 में भाप के इंजन का पेटेंट मिल गया और संसद द्वारा 25 वर्ष तक वैध रखने का अनुमति प्रदान की गई। 1776 के बाद के छह वर्षों में 300 मॉडल बिके। आरंभ में इसका उपयोग खदानों से पानी निकालने में हुआ। भाप इंजन का यह आविष्कार आगे चलकर रेल इंजन बनाने का जरिया बना और विकास की धमनी कही जाने वाली पटरियों पर रेलें दौड़ीं।

 

सत्येंद्रनाथ बसु ने संसार को

उसकी समग्रता और जटिलता में देखा

भारतीय विज्ञान जगत में सत्येन्द्रनाथ बसु ही एक मात्र ऐसा नाम है जिसे अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ जोड़कर देखा जाता है। सांख्यिकी यांत्रिकी और क्वाटंम सांख्यिकी के प्रगति में सत्येन्द्रनाथ बसु का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। वे व्यापक दृष्टि से चीजों को देखते थे। जिंदादिल और उन्मुक्त प्रकृति के होने के कारण बहुआयामितता उनके दृष्टिकोण में थी। ब्रह्माण्ड में व्याप्त हर एक तत्व को उसके रहस्य, आश्चर्य, अस्तित्व, विस्तार, संकुचन और उपस्थिति के साथ संपूर्णता से देखने का आग्रह उनके मूल स्वभाव में था। बी.डी. नागचौधरी ने उनके बारे में लिखा है कि शायद सत्येंद्रनाथ बसु का सबसे बड़ा आकर्षण इस बात में निहित था कि उन्होंने जीवन को सम्पूर्णता में देखा। उनके लिए विश्राम और आनंददायक साहचर्य जैसे साधारण सुख मस्तिष्क और बुद्धि के विराट क्षेत्र में व्याप्त रहने वाली सुखानुभूति के अंशमात्र थे। एक अर्थ में यह उनकी सशक्त सीमा भी थी। बसु ने संसार को उसकी सम्पूर्णता में जानने और उसकी जटिलता को समझने की कोशिश की, जिसमें विशेष रूप से विज्ञान तथा वह स्वयं इस प्रयास के छोटे-से अंश-मात्र थे।

1 जनवरी 1894 को कोलकाता में सत्येन्द्रनाथ बसु का जन्म हुआ था। पिता रेल विभाग में काम करते थे। नदिया जिले का बारा जुगलिया गांव था जिसमें बांग्ला भाषा बोली जाती थी। सत्येन्द्रनाथ बसु की आरंभिक शिक्षा यहीं पर नार्मल स्कूल में हुई। आरंभिक शिक्षा के बाद 1913 में नरेन्द्रनाथ ने बी एस-सी ऑनर्स की गणित परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की तथा एम एस-सी में 92 प्रतिशत अंक प्राप्त कर विश्वविद्यालय के इतिहास में अभूतपूर्व कीर्तिमान रचा। दोनों परीक्षाओं में दूसरे स्थान पर मेघनाथ साहा थे। इन दोनों ने नवस्थापित यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस के प्रवक्ता के रूप में नौकरी कर ली। अध्यापन के साथ-साथ दोनों युवकों ने शोधकार्य शुरू किया। सैद्धांतिक भौतिकी में बसु का पहला लेख जो साहा के साथ मिलकर लिखा था ‘ऑन द इनफ्लुएंस ऑफ द फाइनाइट वाल्यूम ऑफ मॉलक्यूल्स ऑन द इक्वेशन ऑफ स्टेट’ प्रकाशित हुआ। यह लेख 1918 में फिलॉसाफिकल मैग्जीन में प्रकाशित हुआ था तथा आगामी वर्ष में ‘बुलेटिन ऑफ द कैलकता मैथेमेटिकल सोसायटी’ में बसु के दो लेख प्रकाशित हुए। आगे चलकर 1920 में लगातार प्रकाशन हुआ, इसके बात तीन वर्षों तक वे अप्रकाशित रहे। 1921 में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उन्हें वहां भौतिकी विभाग में नौकरी मिल गई। यहाँ उन्होंने प्लांक के विकिरण नियम के परिणाम निकाले। साहा के साथ हुए विचार-विमर्श में एक संतोषजनक व्याख्या सामने आयी जो आइंस्टीन के फोटान समीकरण पर आधारित थी। यह लेख फिलासफिकल मैगजीन में भेजा गया किंतु बैरंग लौटने पर इसे उन्होंने आइंस्टीन के पास भेजा। उनका सोचना था कि आइंस्टीन ‘जेइट्स स्क्रिप्ट फुर फिजिक’ में उसके प्रकाशन की व्यवस्था कर सकेंगे। बसु आइंस्टीन से पूर्णतः अपरिचित थे और उन्होंने जो मूल्य निर्धारित किये थे उसके अनुसार यह तथ्य सामने आता था - प्लांक के नियम में गुणांक  8ट2ध्ब्3 की व्युत्पŸिा दर्शाने की कोशिश है। बसु ने इस मत को आधार बनाया कि प्रावस्था समष्टि के प्रारंभिक क्षेत्रों में ी3  सारतत्व उपस्थित होता है।

आइंस्टीन ने इस लेख को स्वीकार ही नहीं किया अस्तु उसे विज्ञान के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज कहते हुए जर्मन भाषा में अनुवाद भी किया। सैद्धांतिक भौतिकी के साथ-साथ प्रायोगिक भौतिकी के अच्छी तरह परिचय करने की चाह बसु के मन में गहरा रही थी। इस इच्छा के चलते रेडियोधर्मिता तकनीक के बारे में मैडम क्यूरी और एक्स किरण स्पेक्ट्रमी के बारे में मौरिस डी ब्रोग्ली से संपर्क किया। मैडम क्यूरी, बसु से प्रभावित हुई किंतु फ्रेंच भाषा के सीखने का भी आग्रह किया जिस पर बसु ने अमल किया। पेरिस में एक साल बिताने के बाद 1925 में बसु बर्लिन के लिए रवाना हुए। यह वह समय था जब आइंस्टीन से उनकी मुलाकात हुई। अलबर्ट आइंस्टीन ने बसु के कामों को सामान्य नियम का रूप दिया। इससे सांख्यिकी क्वांटम यांत्रिकी प्रणाली के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी को आजकल बसु आइंस्टीन सांख्यिकी कहते हैं। इसके जरिये समाकल चक्रण वाली कणिकाओं की व्याख्या की जाती है जो बहुगुणित होने पर भी पूर्व की क्वांटम अवस्था को प्राप्त करती है। इन कणिकाओं को अब बसु-आइंस्टीन के नाम पर बोसान कहा जाता है।

सत्येन्द्रनाथ बसु अपने स्पष्ट नजरिये के चलते विज्ञान के क्षेत्र और जीवन में नवोन्मेष कर पाये। उन्हीं के शब्दों में, ‘‘किसी विचार को तब तक स्वीकार न करो, जब तक तुम स्वयं उसकी संगतता और उस अवधारणा का आधार प्रस्तुत करने वाली तार्किक संरचना से संतुष्ट न हो जाओ। विषय-प्रवीण लोगों की कृतियों का अध्ययन करो। ये वे लोग हैं जिन्होंने विषय में महत्वपूर्ण योगदान किया है। अपेक्षाकृत कम क्षमता वाले लोग क्लिष्ट बिंदुओं पर छलाँग लगा देते हैं।’’

सत्येन्द्रनाथ सरलता पर हमेशा बल देते थे। क्लिष्टता को वे अवरोध मानते थे। सहज, स्वाभाविक, शांत रहने पर उनकी पूरी दिनचर्या निर्भर होती थी। उन्हें संगीत में गहरी रुचि थी जिसके चलते यसराज और बांसुरी बजाने में वे प्रवीण थे। संगीत में उनकी रुचि का वलय भारतीय क्लासिकल संगीत और लोकसंगीत से होकर पाश्चात्य संगीत तक फैलता है। ललित कलाओं में भी वे गहरी दिलचस्पी रखते थे जिनके लिए वे अलग से समय निकाल लेते थे।

 

 

सूची के इन नामों को

कम नहीं किया जा सकता

रॉबर्ट बॉयल, आइजक न्यूटन, जेम्सवॉट और सत्येंद्रनाथ बसु ऐसे ही नाम हैं जिनपर आकर एक ठहराव होता है। सूची से इन नामों को कम नहीं किया जा सकता। कवि सुमित्रानंदन पंत ने एक बार ओशो को कुछ विचारकों-महापुरूषों के नाम दिए। सूची बहुत लम्बी थी- दर्जनों नाम की; जैसे - राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, नानक, रैदास, कबीर, शंकराचार्य आदि-आदि। उन्होंने कहा कि अगर आपको इनमें से चुनाव करना हो तो किसका करेंगे। ओशो ने कुछ नामों का चुनाव किया। पंत ने फिर कुछ नाम हटाने को कहा। ओशो ने कुछ नाम फिर कम किए। यह सिलसिला आगे बढ़ा और अंत में चार नाम रह गए। पंत ने जब इन्हें कम करने को कहा तो ओशो ने जवाब दिया कि बस अब और कम न करें। ये चारों नाम चार स्तंभ हैं जिस पर समाज खड़ा है। यदि इन्हें कम करेंगे तो समाज की कल्पना भी निराधार होगी, विखंडित होगी।

बॉयल, न्यूटन, जेम्सवॉट और बसु ऐसे ही चार स्तंभ हैं जिस पर विज्ञान का भवन टिका है।

संपादकीय कक्ष से