ऐतिहासिक पृष्ठ


भारत-पाक युद्ध की अनकही विज्ञानगाथा

डॉ.मनमोहन बाला

प्रत्येक वर्ष में 16 दिसम्बर को हम ‘विजय दिवस’ के नाम से मनाते हैं क्योंकि 42 वर्ष पूर्व भारतीय सेना ने इसी दिन पाकिस्तान को एक करारी हार दी थी और उसको आत्मसमर्पण करना पड़ा था। यही नहीं, इस हार के बाद पूर्वी पाकिस्तान स्वतन्त्र हो कर एक नए देश - बांग्लादेश के नाम से स्थापित हुआ था। इस युद्ध के विषय में अनेक भारतीय, पाकिस्तानी तथा अन्य देशों के इतिहासकारों ने इलेक्ट्रॉनिक तथा प्रिन्ट मीडिया में अंग्रेजी भाषा में बहुत कुछ लिखा है। स्वयं एयरचीफ मार्शल पी.सी.लाल ने जो उस समय भारतीय वायुसेनाध्यक्ष थे, अपनी पुस्तक ‘माई इयर्स विद इण्डियन एयर फोर्स’ में इस युद्ध का विस्तृत वर्णन किया है। इसी प्रकार एयरकमोडोर जसजीत सिंह तथा अन्य लेखकों ने इस युद्ध के रोचक वर्णन किया है।

किन्तु इस युद्ध में भारतीय सेना ने प्रथम बार एक ‘इलेक्ट्रॉनिक युद्ध’ लड़ा और भारतीय वायु सेना की एक वायरलेस एक्सपेरिमेंट यूनिट ने एक ऐसी सूचना का अपरोधन किया जिसने पाकिस्तानी सेना को अगले दिन ही आत्मसमर्पण करने को बाध्य कर दिया। यह एक विडम्बना ही थी कि इस छोटे से किन्तु अति महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक युद्ध का वर्णन किसी भी इतिहासकार ने नहीं किया। आज इस इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के विषय में मैं आपको बताना चाहूंगा क्योंकि मैंने स्वयं इस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मैं उस समय भारतीय वायुसेना में एक फ्लाइट लेफ्टिनेंट (थल सेना के कैप्टेन के बराबर की रैंक) था। जून सन 1970 में एयरफोर्स टेक्निकल कॉलेज, बैंगलौर से एक एडवान्स्ड कोर्स की पढ़ाई करने के पश्चात मेरी पोस्टिंग एक वायरलेस एक्सपेरिमेंन्टल यूनिट में हो गई थी। संक्षेप में इसे डब्ल्यू.ई.यू. कहते थे। तब तक मेरी भारतीय वायुसेना में 7 वर्ष की कमीशन्ड सेना पूरी हो चुकी थी किन्तु मैंने इस यूनिट का नाम भी नहीं सुना था। वास्तव में मैंने वायुसेना में भर्ती लेने का कभी विचार भी नहीं किया था। सन 1962 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से डी.फिल. पूरी करने के साथ ही मुझे अमेरिका की पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी से पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप का निमंत्रण मिल चुका था और मार्च 1963 में मुझे वहां जाना था। किन्तु सन 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत को एक शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इसी बीच भारतीय वायुसेना के सिग्नल्स ब्रान्च में राष्ट्रपति कमीशन के लिए मेरा चयन हो गया और मैंने पेन्सिलवेनिया जाने के बजाय भारतीय वायुसेना में कमीशन लेना बेहतर समझा। ऐसा करने के अनेक कारण थे जिसमें प्रमुख कारण था देश के लिए सक्रिय कार्य करने का अवसर मिलना। इस प्रकार जनवरी 1963 में मैं भारतीय वायुसेना का पायलट अफसर बन गया।

सन 1970 के जून के महीने में मैंने वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट के कमान्डिंग ऑफिसर स्क्वाड्रन लीडर ओ.एन.कपूर के पास रिपार्ट किया। यह एक छोटी सी यूनिट थी। इसमें मुझ सहित कुल 6 तकनीकी अधिकारी, एक प्रशासनिक अधिकारी तथा 40 एयरमैन काम करते थे। वरिष्ठता के अनुसार मैं दूसरे नम्बर पर था, इसलिए मैं 2आईसी अर्थात सेकन्ड इन कमान्ड भी कहलाता था। मेरी नियुक्ति यूनिट ऑप्स ऑफिसर पद के लिए इुई थी इसलिए मैंने उसी दिन वह पद संभाल लिया। यूनिट का काम अति गुप्त था। यह यूनिट आर्मी मुख्यालय के सिग्नलस इन्टेलिजेन्स निदेशालय के अधीन काम करती थी। इस निदेशालय का काम भारत के पड़ोसी देशों के थल सेना वायुसेना एवं नौसेना द्वारा किए जाने वाले कार्य-कलापों को मॉनीटर करना था। काम को विभिन्न वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिटों की सहायता से किया जाता था। इसलिए इस निदेशालय के अधीन आर्मी, एयरफोर्स तथा नेवी की अनेक वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिटें थीं। यह मॉनीटरिंग इलेक्ट्रॉनिक आयुधों द्वारा की जाती थी। प्रत्येक डब्ल्यू.ई.यू. का अलग-अलग कार्य तथा उत्तरदायित्व था। हमारी यूनिट का काम पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की सेना की रेडियो टेलीफोन द्वारा की गई वार्ताओं का अपरोधन कर युद्ध संबंधी आसूचनाओं का संकलन करना तथा महत्वपूर्ण आसूचनाओं को निदेशालय के उपयुक्त विभागों तक पहुंचाना था। यह काम हम विशिष्ट आवृत्तियों के संग्राहकों द्वारा करते थे। इन संग्राहकों के साथ टेप रिकॉर्डर भी संलग्नित थे जिन पर महत्वपूर्ण वार्ताएं रिकॉर्ड कर ली जाती थीं। निदेशालय को पहुंचाई जा रही प्रत्येक वार्ता के साथ यूनिट ऑप्स अफसर को अपनी अनुशंसा भी देनी पड़ती थी जो एक अति उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य होता था। यह काम चौबिस घंटे सातों दिन होता था।

संग्राहकों पर वार्ता को सुनने तथा महत्वपूर्ण वार्ता को रिकॉर्ड करने का काम रेडियो टेलीफोन ऑपरेटर ट्रेड के ऑपरेटर एयरमैन करते थे जो अधिकतर कॉर्पोरल रैंक के होते थे। यह अत्यधिक कठिन तथा धीरज का कार्य होता है। कुछ समय बाद ही ऑपरेटर की श्रवण की शक्ति कम हो जाती है थकान उस पर हावी होने लगती है, इसलिए प्रत्येक ऑपरेटर को 4 घंटे कार्य के पश्चात 2 घंटे का आराम दिया जाता है। यदि उसे आराम न दिया जाए तो उसकी सुनने की क्षमता कम हो जाती है। इससे लापरवाही उसे घेर लेती है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय पर्ल हार्बर नामक द्वीप पर अमेरिकी राडार ऑपरेटर की इसी लापरवाही के कारण जापान द्वारा भयंकर जापानी हवाई आक्रमण हो गया था।

पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की रेडियो टेलीफोन वार्ता में अंग्रेजी तथा उर्दू भाषा के अलावा कभी-कभी बंगाली, पश्तो, झंगी तथा चीनी भाषा का भी इस्तेमाल किया जाता था। इसके लिए मुख्यालय के पैनल पर विशेष अनुवादकों की सुविधा भी उपलब्ध थी। रेडियो संग्राहकों तथा टेपरिकार्डरों का नियमित रख-रखाव भी किया जाता था। सन सत्तर के दशक में पूर्वार्द्ध में भारतीय वायुसेना में डिजिटल प्रौद्योगिकी का प्रवेश नहीं हुआ था इसलिए हमारे रिसीवर तथा रिकॉर्डर पारम्परिक अनालॉग प्रौद्योगिकी के थे जो शीघ्र ही गर्म हो जाते थे और ठीक से काम करना बंद कर देतेे थे, इसलिए थोड़ी देर बाद उनको ठंडा करना आवश्यक होता था। इन सब कठिनाइयों के बाद भी हम सभी अपने-अपने कार्य को पूर्ण समर्पण के भाव से करते थे। हम समय-समय पर प्रत्येक सप्ताह कोई न कोई ऐसी वार्ता का अपरोधन करते रहते जो अपने देश के हित में काम आती थी। इस आसूचना को रिकॉर्ड कर हम अपनी अनुशंसा के साथ निदेशालय में भेज देते थे। यूनिट ऑप्स अफसर और 2 आई सी होने के कारण मेरा उत्तरदायित्व बहुत अधिक था। काम अति गुप्त होने के कारण मेरा काम कुछ अधिक ही गंभीर हो गया गया था। किन्तु धीरे-धीरे मुझे अपने काम में आनंद आने लगा था। इलेक्ट्रॉनिक युद्ध-प्रणाली पर कार्य करने का यह मेरा प्रथम अनुभव था।

यद्यपि पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान की संरचना एक ही धर्म के अनुयायी होने कारण हुई थी किन्तु उनकी भाषा, उनकी संस्कृति तथा उनकी जीवन शैली एक दूसरे से बहुत ही भिन्न थी। पष्चिमी पाकिस्तान का रोबदार मुसलमान निरन्तर नरम स्वभाव के पूर्वी पाकिस्तानी को नीचा दिखाने की चेष्टा में लगा रहता था जिससे पूर्वी पाकिस्तान की जनता तथा सैनिकों में असंतोष फैलने लगा और फिर एक दिन वह असंतोष इतना बढ़ गया कि पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुसलमान वायुसैनिकों ने तेजगांव एयरबेस में विद्रोह का शंखनाद फूंक दिया। वह विद्रोह बहुत तेजी से फैलने लगा। पाकिस्तान के दोनों भागों में स्थिति बहुत तनावपूर्ण होती जा रही थी। उनकी इस स्थिति की सूचना हमें निरन्तर अपने आरटी चैनलों से प्राप्त होती रहती थी और हम महत्वपूर्ण आसूचनाओं को निदेशालय को भेजते रहते थे। जैसे-जैसे पाकिस्तान में तनाव बढ़ता जा रहा था, हमें रेडियो टेलीफोन चैनल पर पाकिस्तानी वार्ताओं की प्रकृति में परिवर्तन नजर आता जा रहा था। अब प्रशासनिक तथा व्यापारिक वार्ताएं कम और युद्ध संबंधी वार्ताएं अधिक होने लगी थीं। अपने अनुभव से हमने पाया पाकिस्तानी सैनिक अधिकारी अपनी अति गुप्त तथा परमगुप्त वार्ताओं के लिए कुछ विशेष आवृत्तियों का ही प्रयोग करता था अन्यथा उनको नित्य परीक्षण करके बन्द कर देता था। हमने पाया कि ऐसी सात आवृत्तियां थीं। इन्हें हमने ‘रणनीतिक आवृत्ति’ की सूची का नाम दे रखा था। अमेरिकी कम्पनी ने पाकिस्तान सेना को कुछ ‘कोडिंग कार्ड’ दे रखे थे। संप्रेषक (ट्रांसमीटर) में इन्हें लगा देने से उनकी स्पीच में कोडिंग हो जाती थी जिससे हम वार्ता को बिलकुल समझ नहीं पाते थे। किन्तु उसी अमरीकी कम्पनी ने हमें डिकोडिंग कार्ड बेचे थे जिनकी सहायता से हम उनकी कोडेड वार्ताओं को डिकोड करके समझने लायक बना लेते थे। ये डिकोडिंग कार्ड परमगुप्त होने के कारण यूनिट ऑप्स अफसर के पास सुरक्षा में रखे जाते थे और इनका प्रयोग किसी अधिकारी द्वारा ही किया जाता था। अब किसी न किसी अफसर को चौबीसों घंटे यूनिट रूम में रहना पड़ता था क्योंकि कोडिंग वार्ताओं का प्रयोग बहुत अधिक किया जाने लगा था। हमारी तथा हमारी जैसी अन्य इन्टेलिजेन्स यूनिटों का काम अब बहुत बढ़ गया था। इसी समय हमारे कमाडिंग अफसर की मां अत्यधिक बीमार हो गई और उन्हें 10 दिसम्बर 1971 को छुट्टी पर जाना पड़ा। इससे मेरा दायित्व बहुत बढ़ गया और युद्व शुरू हो जाने पर मेरा अधिकतर समय यूनिट में ही बीतने लगा था। इस समय मुझे अपने कमांडिंग अफसर की कमी बहुत खल रही थी। किन्तु उनकी मां मृत्युशैया पर पड़ी थी और ऐसे समय में उनका अपनी मां के निकट रहना बहुत आवश्यक था।

युद्ध शुरू होने के साथ ही हमने इस वार्ता का अपरोधन किया कि ईरान अपने बोइंग सी-130 विमान पाकिस्तान की सहायता के लिए भेज रहा है। हमने इस आसूचना का भी अपरोधन किया कि यद्यपि चीन पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने को तैयार है किन्तु अभी वह भारत पर दबाव डालने के लिए सीमा पर अपनी सेना नहीं भेज सकेगा। इसी प्रकार सीमा पर उड़ान भरते हेलीकॉप्टर पर गोली लगने से मेजर जनरल खदिम रजा के घायल होने का समाचार का अपरोधन भी हमारी यूनिट ने किया था। इसी प्रकार की अनेक अन्य आसूचनाएं, हमारी वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट द्वारा अपरोधन कर अपने सिग्नल्स इन्टेलिजेन्स निदेशालय को हमने भेजी थीं। निश्चय ही इन आसूचनाओं से हमारे रक्षा मंत्रालय को और अंततः हमारे देश को सहायता मिली होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

मनोवैज्ञानिक युद्ध

पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों को अवश्य ही मालूम रहा होगा कि हम उनकी रेडियो टेलीफोन चैनल का अपरोधन कर रहे हैं। इसलिए उनके सैनिक अधिकारी हमारे ऑपरेटरों पर मनोवैज्ञानिक तथा मानसिक दबाव डालने की चेष्टा दूर-संचार के इन्हीं चैनलों पर करते रहते थे। वे प्रायः अपनी टेलीफोन वार्ताओं में अन्य बातों के साथ-साथ गलत सूचनाएं भी देते रहते थे जिससे हमारे ऑपरेटरों पर मानसिक दबाव निश्चय ही पड़ता था। उदाहरण के लिए वे कहते थे कि, ‘उनके विमानों ने अम्बाला तथा आगरा शहरों पर भीषण बमबारी की है’, ‘उनकी थल सेनाओं ने जम्मू सेक्टर में बड़ी जीत हासिल की है’, ‘राजस्थान तथा असम सेक्टरों में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को बन्दी बना लिया है’ आदि। ऐसी बातें बार-बार सुनकर हमारे ऑपरेटर परेशान हो जाते थे। इसलिए हमारे विशेषज्ञों को अक्सर उन्हें उत्साहवर्धक परामर्श भी देना पड़ता था ताकि वे गलत और सही सूचनाओं का भेद समझ सकें।

गर्व का वह क्षण

जैसे-जैसे सन 1971 का नवम्बर महीना बीत रहा था युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी सेना ने शेख मुजीबुर रहमान को अपना पूरा सहयोग दे रखा था। हमारे रेडियो टेलीफोन पर अब लगभग सभी चैनलों पर प्रत्येक पल युद्ध संबंधी वार्ताएं ही होती थीं। दिसम्बर 1971 शुरू होते ही युद्ध की घोषणा हो गई। पाकिस्तान ने भारत के पश्चिम दिशा में पूरी शक्ति लगा दी। शायद वे समझ चुके थे कि अब पूर्वी पाकिस्तान उनसे  अलग हो जाएगा। इसलिए पूर्वी पाकिस्तान की अधिकतर सेना पश्चिमी पाकिस्तान भेज दी गई थी। पूर्वी पाकिस्तानी वायुसेना के एयर ऑफिसर ढाका, एयर कमोडोर इनाम-उर-रहमान की एक वार्ता का अपरोधन हमने किया जिसमें वह अपने वायुसेनाध्यक्ष से कह रहे थे, ‘‘थेंक्यू सर फॉर गिविंग मी अ कमांड ऑफ नथिंग’’।

पूर्वी पाकिस्तान के आकाश पर भारतीय वायुसेना का प्रभुत्व छा चुका था। भारत की थल सेना भी राजधानी ढाका को चारों ओर से घेरती जा रही थी। हमें निरन्तर अपने चैनल पर पूर्वी पाकिस्तान से अच्छे समाचार मिल रहे थे। 14 दिसम्बर 1971 का सूरज अपने साथ अच्छे समाचार लाया। हमने अपने चैनलों पर वार्ताओं के अपरोधन से पता लग रहा था कि पूर्वी पाकिस्तान के सैनिकों का मनोबल लगभग टूट चुका था। उसी दिन लगभग पौने ग्यारह बजे सुबह हमारे एक ऑपरेटर ने मुझे फोन द्वारा अपने चैनल के पास बुलाया। मैं फौरन उसके पास पहुंचा। उसने मुझे एक वार्ता के विषय में बताया जो पश्चिमी पाकिस्तान के मुख्यालय से पूर्वी पाकिस्तान के मार्शल-लॉ प्रशासन ले.जनरल टिक्का खां के कार्यालय में की गई थी। उसने यह भी बताया कि यह वार्ता एक रणनीतिक चैनल पर कोडिंग कार्ड लगा कर की गई थी और उसे अपना डिकोडिंग कार्ड लगाना पड़ा था। यह सुन कर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मैंने उसकी लॉक बुक देखी तो पाया कि यह वार्तालाप लगभग तीन मिनट तक हुआ था। जब मैंने उसे रिकॉर्डेड वार्ता को सुना तो पाया कि यह वार्ता किसी मीटिंग के विषय में थी। जो उसी शाम ढाका गवर्नर ए एम मलिक की अध्यक्षता में की जानी थी। मीटिंग में भाग लेने वालों में टिक्का खां तथा इनाम-उर-रहमान के नाम भी थे। इससे मुझे समझ में आया कि यह कोई उच्च स्तरीय मीटिंग अवश्य होगी। मैंने एक अन्य अफसर को भी यह टेप सुनने को कहा तो उसे भी ऐसा ही प्रतीत हुआ। अब मैंने फौरन उस वार्ता को टाइप करवाया और उसे पढ़ा। अब तक मुझे इस वार्ता का महत्व तथा इसकी गंभीरता समझ में आ गई थी।

इस समय मुझे अपने कमांडिंग अफसर की अनुपस्थिति बहुत खली। साढ़े ग्यारह बज चुके थे। मुझे सलाह देने वाला कोई नहीं था। मैंने फौरन निदेशालय में अपने सहायक निदेशक (वायु) विंग कमांडर बनर्जी को इस वार्ता के विषय में बताया। लगभग 1 घंटे बाद उन्होंने मुझे फौरन स्वयं इस रिकॉर्डेड टेप और इसके लॉग-बुक के साथ निदेशालय में पहुंचने के लिए कहा। वहां विंग कमांडर बनर्जी और निदेशक ब्रिगेडियर जुनेजा ने भी इस टेप को सुना। लगभग दो घंटों के विचार विमर्श के बाद मैं वापस लौट आया। लगभग 7 बजे सायंकाल  में मुझे समाचार मिला कि जिस समय ढाका के गवर्नर हाउस में वह महत्वपूर्ण मीटिंग चल रही थी जिसका अपरोधन मेरी कमान में हमारी वायरलेस यूनिट ने किया था ठीक उसी समय विंग कमांडर विश्नोई के नेतृत्व में भारतीय वायुसेना के पायलटों ने गवर्नर हाउस पर बम तथा रॉकेटों की वर्षा की जिससे घबड़ा कर पाकिस्तान के वे उच्च अधिकारी पास के इन्टरनेशनल होटल में भाग गए और 10 दिसम्बर को पाकिस्तान सेना ने आत्म-समर्पण कर दिया। सचमुच विलक्षण था हमारी यूनिट के कर्मियों के लिए और स्वयं मेरे लिए गर्व का वह क्षण जब हमें पता लगा कि सन 1971 के युद्ध में ऐतिहासिक विजय के कारण बने। किन्तु खेद का विषय है कि हमारी वायरलेस एक्सपेरिमेंटल यूनिट के इस महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के योगदान को सन 1971 के युद्ध के इतिहास में कहीं जिक्र तक नहीं आया है।

डी-705, पूर्वाषा अपार्टमेंट, आनंद लोक ग्रुप हाउसिंग सोसायटी, मयूर विहार फेज-1, दिल्ली