सामयिक


पटरी पर दौड़ती मौत

विजन कुमार पांडेय

मनुष्य ने यातायात के अनेक साधन विकसित किए हैं। उसमें रेलगाड़ी आवागमन का एक प्रमुख साधन है। रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करने का अपना अलग ही आनंद होता है। लेकिन कभी-कभी लोगों की थोड़ी-सी असावधानी इस आनंद को एक बड़ी दुर्घटना का रूप दे देती है। यह बात पिछले वर्ष जनवरी माह की है जब मैं कालका मेल द्वारा इलाहाबाद से टुंडला की ओर यात्रा कर रहा था। रात्रि का पहला पहर था आधे लोग सो चुके थे तथा अन्य भी नींद लेने का प्रयास कर रहे थे। अचानक सभी ने एक बहुत जोर का झटका महसूस किया। क्षण भर में पूरा डिब्बा अस्त-व्यस्त हो गया। अन्य लोगों के साथ मैं भी वास्तविकता को जानने के लिए अपने डिब्बे से बाहर आया। बाहर आकर मैंने जो हृदय विदारक दृश्य देखा उससे मेरा रोम-रोम सिहर उठा। हमारी गाड़ी का इंजन सहित अन्य चार डिब्बे पटरी से उतर चुके थे। हमारी गाड़ी जिस अन्य गाड़ी से टकराई थी वह सवारी गाड़ी थी। सवारी गाड़ी के भी तीन डिब्बे पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए थे। चारों ओर अफरा-तफरी मची हुई थी। लोगों की चीख-पुकार से सारा आकाश गूँज उठा था। कोई इधर भाग रहा था तो कोई उधर। अधिकांश लोग अब भी असमंजस की स्थिति में थे कि वे क्या करें। मैं अपने सहयोगी यात्री के साथ दुर्घटनाग्रस्त डिब्बों के समीप गया। वहाँ के दृश्य तो रोंगटे खड़े कर देने वाले थे।
रेलवे का स्टेशन सबके मेल-मिलाप का एक आकर्षक स्थान होता है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, यहूदी सब ही दिखाई देते हैं। कोई किसी मित्र को लेने आता है, कोई किसी सम्बन्धी को छोड़ने आया है और स्वयं दिल्ली, कोलकत्ता, मुंबई जाने को तैयार है। स्टेशन में ज्यों ही गाड़ी आती है, पूरे स्टेशन में कोलाहल होने लगता है। कुली सामान उठाये इधर-उधर भागे फिरते हैं। यात्री अच्छे स्थानों के लिए बेचैन रहते हैं। यद्यपि एक कुली क़ी मजदूरी प्रति फेरी निश्चित होती है, परन्तु भीड़-भाड़ में मुँह मांगी मजदूरी लेते हैं। स्टेशन के कर्मचारी भी अपने-अपने कर्त्तव्य में लीन दिखाई देते हैं। लेकिन ट्रेन पहुँचने से पहले ही अगर अपने बिछड़ जायें तो कितना दुख होता है उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। अभी यही घटना कानपुर के पास घटी।
कानपुर के पास इंदौर-पटना एक्सप्रेस रेल दुर्घटना ने एक बार फिर से रेलवे की सुरक्षा प्रणाली और रेल हादसे रोकने की दिशा में किए गए प्रयास के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगा दिया है। भारत में रेल हादसों का इतिहास कोईं नया नहीं है। हर एक रेल दुर्घटना के बाद रेलवे मंत्रालय एवं प्रशासन के द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के प्रति दावे किए जाते हैं लेकिन अमल के स्तर पर गंभीर नजर नहीं आते। रेल हादसों के पीछे अमूमन रेलपटरियों का पुराना होना, सिग्नल में गड़बड़ी, कोहरा, मानवीय गलती तथा आतंकवादी वारदात जैसे कारण प्रमुख होते हैं। इस दुर्घटना में भी प्रथम दृष्टया यही नजर आता है कि पटरियों की देखभाल में कहीं न कहीं कुछ कमी जरूर हुईं है। देश के अधिकांश भागों में रेल पटरियां काफी पुरानी व घिसी हुईं हैं जिन्हें तुरंत बदला जाना जरूरी है। यह काफी खर्चीला लेकिन निरंतर चलने वाला काम है। जान-माल की सुरक्षा और समय का मूल्य देखते हुए इस दिशा में जल्द से जल्द कदम उठाना चाहिए। रेलयात्रियों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण हर साल बड़ी संख्या में नईं रेल चलाईं जाती हैं जिस वजह से एक ही ट्रैक पर आने जाने वाली गाडि़यों का भार बढ़ता जाता है। इसलिए रेलमार्गाे के नवीनीकरण व मरम्मत के लिए पर्यांप्त राशि उपलब्ध कराईं जानी चाहिए। इसके साथ ही हजारों किमी लंबी रेल लाइन की सुरक्षा का प्रश्न भी बहुत महत्वपूर्ण है।
देश में रेल दुर्घटनाएँ क्यों होती हैं, इसकी वजह किसी से छुपी नहीं। आजादी के बाद जिस तरह से रेलवे का दोहन किया गया, उस अनुपात में उसकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजन, रेलवे की हालत दिनों दिन खराब होती चली गयी। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आजादी के समय देश में रेल ट्रैक की कुल लंबाईं करीब 54 हजार किलोमीटर थी, जबकि आजादी के करीब सात दशक बाद अब देश में रेल ट्रैक की लंबाईं (रोड लेंथ में) 66 हजार किलोमीटर है। अर्थात इन सात दशकों में रोड लेंथ के हिसाब से इसमें महज 12 हजार किलोमीटर का ही इजाफा हो पाया है। जबकि इस दौरान पटरियों पर यात्रियों का बोझ कईं गुणा बढ़ गया। हालांकि रेल मंत्रालय ट्रैकों के दोहरीकरण और तिहरीकरण को जोड़कर रेलपथ की कुल लंबाईं एक लाख 15 हजार किलोमीटर बताता है। इसमें कईं लाइनों को मीटर गेज यानि छोटी लाइन से ब्रॉड गेज यानि बड़ी लाइन में तब्दील किया गया है।
यहाँ केवल ट्रेनों के पटरी से उतरने की ही सवाल नहीं है। ट्रेनों के आपस में टकरा जाने, आग लगने, फिश प्लेट हटने, सिग्नल की खराबी, रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारों का अभाव आदि वजहों से भी लगातार हादसे होते रहते हैं। अक्सर देखा गया है कि इंजन ड्राइवरों तथा अन्य स्टाफ पर काम का बहुत दबाव रहता है। रेलवे ड्राइवरों से लगातार काम कराए जाने की शिकायतें भी मिलती हैं। लगातार काम करने से थकावट आती है और उस स्थिति में मानवीय गलतियों की आशंका बढ़ जाती है। मगर जिस विभाग में सुरक्षा श्रेणी में ही तकरीबन डेढ़ लाख पद सालों से खाली पड़े हों, उससे सुरक्षा की कितनी उम्मीद की जा सकती है! आज रेलवे को आर्थिक रूप से ही नहीं, सुरक्षित यात्रा की दृष्टि से भी मजबूत करने की जरूरत है। दुनिया के कई देशों में लंबा-चौड़ा रेलतंत्र है, कभी-कभी दुर्घटनाएं भी होती हैं, लेकिन भारत में रेल यातायात जिस तरह असुरक्षित हो गया है, वैसा कहीं नहीं है, जबकि हम तकनीकी तौर पर मजबूत देशों में शुमार होते हैं। कोई वर्ष ऐसा नहीं बीतता, जब कोई रेल दुर्घटना न हुई हो। रेल के पटरी से उतरने पर, दो रेलों के आपस में टकराने, पुल-पुलिया टूटने, पटरी उखडने और ऐसे कई कारणों से भीषण दुर्घटनाएं होती रही हैं, जिनमें कभी 40 लोगों की जान जाती है तो कभी 50 की। अब तो यह संख्या और भी बढ़ती ही जा रही क्योंकि ट्रेनों की आवाजाही और रफ्तार भी ज्यादा हो गई है।
रेल हादसों का बाजार ऐसा लगता है जैसे भारतीय रेल हादसों का बाजार बन गई है। मई 2010 में पं.बंगाल में नक्सलियों की संदिग्ध वारदात के कारण ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पटरी से उतरी थी, जिसमें 170 लोग मारे गए थे। उसके बाद शायद अभी कानपुर की दुर्घटना में सबसे ज्यादा हताहत हुए हैं। भारत में 2014-15 में 131 रेल हादसे हुए और इसमें 168 लोग मारे गए। 2013-14 में 117 ट्रेन हादसे हुए और इसमें 103 लोग मारे गए थे। 2014-2015 में 60 फ़ीसदी रेल दुर्घटना ट्रेनों के पटरी से उतरने के कारण हुई। 1956 से 66 के बीच 1,201 रेल हादसों में 962 दुर्घटना पटरी से उतरने के कारण हुई। इन ज़्यादातर रेल हादसों में मानवीय भूलों को जि़म्मेदार ठहराया गया। भारत में अभी क़रीब 115,000 किलोमीटर रेलवे ट्रैक है। रेलवे मंत्रालय ने 2015 में अपने एक मूल्यांकन में बताया था कि 4,500 किलोमीटर रेलवे ट्रैक को दुरुस्त करने की ज़रूरत है। हालांकि फंड की कमी के कारण ये बेहद ज़रूरी काम नहीं हो रहे हैं। न तो नए ट्रैक का निर्माण हो रहा है और नहीं उन्हें बदला जा रहा है। 2015 में केवल 2,100 किलोमीटर ट्रैक के नवीकरण का लक्ष्य रखा गया था।
ट्रैक के फैलने-सिकुड़ने से भी हादसे भारतीय रेलवे में इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के लिए गर्मी में ट्रैक का फैलना और सर्दियों में सिकुड़ना किसी दुःस्वप्न से कम नहीं है। 2014 में इस बात का उल्लेख रेलवे के एक आंतरिक ज्ञापन में किया गया था। इस साल जनवरी और मई महीने में रेलवे पटरी में गड़बड़ी के 136 मामलों को दुरुस्त किया गयाथा। जाड़े में रेलवे ट्रैक का तेज़ी से संकुचन होता है। इसके लिए रेलवे की तरफ़ से विंटर पट्रोलिंग शुरू की जाती है। इसमें पटरी के संकुचन की तहक़ीक़ात की जाती है। यहाँ समस्या केवल यही नहीं है। बेकार हो चुकी गाडि़यों को ट्रैक से बाहर करने के लिए फंड की भी ज़रूरत है। इन हादसों में गाडि़यों और ट्रेनों के टकराने के भी मामले हैं। इस समय देश में 10 हज़ार से ज़्यादा मानव रहित क्रॉसिंग हैं। रेलवे फंड और निवेश की कमी से बुरी तरह जूझ रहा है। रेलवे सुरक्षा के नाम पर निवेश में भारी कमी है। पिछले साल एक रिपोर्ट में स्वीकार भी किया गया था कि सुरक्षा को लेकर रेलवे में जितना निवेश होना चाहिए उतना नहीं हो रहा है।
रेलवे ट्रैक पर बढ़ता बोझ
बीते कुछ सालों से भारतीय रेलवे ट्रैक पर लोड बढ़ता जा रहा है। आम लोगों के ट्रैफिक के साथ माल ढुलाई का भी लोड बढ़ता जा रहा है। गुड्स ट्रेनें इन दिनों ओवर लोडेड चल रही हैं। अगर किसी गुड्स ट्रेन की क्षमता 78 टन की है, तो उस पर 80-85 टन माल की ढुलाई हो रही है। जिससे रेल ट्रैक के टूटने का ख़तरा बढ़ गया है। ऐसी संभावना है कि इंदौर-पटना एक्सप्रेस ट्रेन जिस ट्रैक से गुज़र रही थी, वहाँ कुछ समय पहले गुज़री गुड्स ट्रेनों के कारण भी क्रैक बन गए हों जिसके कारण इतना बड़ा हो गया।
लर्चिंग से हादसे
भारतीय रेलवे के सूत्रों के मुताबिक इंदौर-पटना एक्सप्रेस के ड्राइवर ने अपनी रिपोर्ट में लर्चिंग को हादसे की वजह बताया है। दरअसल किसी ट्रेन की दुर्घटना की तीन आम वजहें होती हैं-लर्च होना (गड्डे के आने से वाहन का ऊपर नीचे या इधर-उधर होना), जर्क (अचानक झटका लगना) और तीसरा हैस्विंग (जब आपकी गाड़ी झूल जाती है)। ड्राइवरों को रेलवे ट्रैक के नीचे गड्डा सा महसूस हुआ हो, यानी ट्रैक दब गया हो, तो भी ड्राइवर ऐसी रिपोर्ट देता है। रेलवे सूत्रों के मुताबिक जिस वक्त इंदौर-पटना ट्रेन के साथ हादसा हुआ, ट्रेन की रफ़्तार काफ़ी तेज़ थी। उससे ठीक पहले जो ट्रेन इस ट्रैक से गुज़री, उसकी स्पीड कम थी। ये भी बताया गया है कि इस रूट में पिछले कई महीनों के दौरान झांसी लोको शेड के कई ड्राइवर इसी जगह पर लर्चिंग महसूस कर रहे थे। आमतौर पर रेलवे ड्राइवर इस तरह की रिपोर्ट करने की ज़हमत नहीं उठाते इसलिए हादसे होने की संभावना और भी बढ़ जाती है।
ब्रेक पावर सर्टिफिकेट जरूरी किसी भी ट्रेन को चलाने से पहले उसे पूरी तरह से फि़ट होने का प्रमाण पत्र जारी किया जाता है। जिस स्टेशन से ट्रेन चलती है, वहाँ पर उसका प्राइमरी इंस्पेक्शन होता है। फिर जब ट्रेन गंतव्य तक पहुँचती है, वहाँ भी जाँच होती है। इसे ब्रेक पावर सर्टिफिकेट कहा जाता है। यह सभी ड्राइवर को लेना जरूरी होता है।
इंदौर-पटना एक्सप्रेस में एस-1 और एस-2 की बोगी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, पीछे की बोगियां इन पर जा चढ़ी। ऐसे में ये भी संभव है कि ट्रेन के किसी कोच में कोई गड़बड़ी रही हो। अब देखने वाली बात यह होगी कि हादसे वाली ट्रेन का इंदौर में पूरी तरह जांच हुई भी थी या नहीं। वैसे भारतीय रेल अपने रेलवे ट्रैक की निगरानी बड़े पैमाने पर करता है। निगरानी के लिए अलग से भी बजट होता है। पुरानी ट्रैक में मुश्किलें कभी भी आ सकती हैं। ट्रैक में इस तरह की खामियों को बेहतर क्वालिटी के स्टील ट्रैक के इस्तेमाल के ज़रिए ही दूर किया जा सकता है।
रेल ड्राइवर की व्यथा
रेल ड्राइवर की अपनी कई समस्या होती हैं। दरअसल उनकी सारी समस्याएँ तकनीकी होती हैं। रात में तो कभी-कभी ऐसा होता है कि 10 मीटर से आगे नहीं दिखता। इंजन में हेड लाइट से ड्राइवर को कम से कम 240 मीटर दिखना चाहिए। रात में अक्सर रोशनी कम रहती है। ऊपर से कुहासा छाया रहता है। सर्दियों में तो और मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अचानक यदि कुछ सामने आ गया तो ड्राइवर पूरी तरह से लाचार हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह गाड़ी को रोक नहीं सकता। इमरजेंसी ब्रेक लगाने के सिवा कोई रास्ता ही नहीं बचता।

इसके अलावा और भी कई तरह की तकनीकी समस्याओं का सामना ड्राइवरों को करना पड़ता है। उन्हें इंजन में जो फ्रेंडली कैब मिलने चाहिए वो भी नहीं मिलते हैं। वे आराम से बैठ नहीं सकते। ऐसे में वे आरामदायक तरीक़े से ड्राइव नहीं कर पाते। दरवाज़े टूटे रहते हैं, जिनसे सर्दियों में काफ़ी दिक्क़त होती है। ठंड लग रही होती है और वे गाड़ी चला रहे होते हैं। इस स्थिति में भी ड्राइवर का ध्यान बंटता है और हादसे होने की संभावना बढ़ जाती है।
दूसरी समस्या है आराम का और छुट्टियों की। ड्राइवरों को आराम करने का वक़्त नहीं मिलता। उन्हे 12 से 16 घंटे तक बाहर रहना पड़ता है। इन्हीं 12 से 16 घंटों में उनको रेस्ट भी करना है और परिवार को भी देखना होता है। इस स्थिति में कोई कितना रेस्ट कर पाएगा यह सोचने वाली बात है। कितने ड्राइवर को तो पूरी रात ड्यूटी करनी पड़ती है। स्टॉफ की कमी से कभी-कभी दो तीन रात जागना पड़ जाता है। इस तरह सामाजिक जीवन से वे बिल्कुल कट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी समस्या रेस्ट और छुट्टी की है। जब किसी व्यक्ति को आराम नहीं मिलेगा तो निश्चित रूप से उसकी एकाग्रता कम होगी और दुर्घटना घटेगी।
दरअसल रेल दुर्घटना का असर बाकी किसी भी हादसे से कईं गुना ज्यादा होता है। इसका सीधा कारण यात्रियों की संख्या है। भारत में अंतर्देशीय परिवहन के लिए रेल सबसे बड़ा माध्यम है। दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क में से 13 हजार ट्रेनों में केवल भारत में हर रोज सवा दो करोड़ से भी ज्यादा यात्री सफर करते हैं। कुल 64ए600 रूट के ट्रैक पर जरा-सी गफलत लाखों लोगों की जान को जोखिम में डाल सकती है। औसतन एक किमी ट्रैक करीब 19ए133 यात्रियों का बोझ उठाता है यानि रेलवे पर यात्रियों का दबाव काफी अधिक है। ऐसे में इन पटरियों पर यात्रियों और इनके आसपास से गुजरने वालों की सुरक्षा पर खास ध्यान देने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह हो नहीं पाता और यही वजह है कि हर साल हादसों से दो-चार होना पड़ता है। यूं रेल बजट में हर बार यात्री सुविधाओं का वादा किया जाता है, लेकिन बिना सुरक्षा के कैसी सुविधा?
सरकार देश में तेज गति की रेल सेवायें देने की बात दोहराती रही है लेकिन उसके सामने इस समय वास्तविक चुनौती रेल सेवाओं को सुरक्षित बनाने की है। खास कर तब जब साल दर साल बचाव उपायों और रेल ढांचे के आधुनिकीकरण के प्रयास सरकारों की प्राथमिकताओं में पीछे छूट रहे हों। आज बढ़ती रेल दुर्घटनाओं के संबंध में रेल ढांचे के आधुनिकी कारण का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हालिया अनुभव ये हैं कि मानवीय भूलों के साथ-साथ तकनीकी दिक्कतों और पुराने उपकरणों की कार्यं प्राणाली में एकाएक खराबी के चलते रेल यात्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। इन वजहों को दूर करना रेलवे की प्राथमिकता होनी चाहिए, जबकि इसके विपरीत बीते सालों में बचाव उपायों और रेल ढांचे के आधुनिकी करण के लिए निर्धारित बजट में कटौती होती गईं है। साल 2013.14 में सुरक्षा और बचाव बजट में 2000 करोड़ रुपए को निकाल लिया गया, जबकि केवल 900 करोड़ रुपए निर्धारित किए गए। फरवरी 2012 में अनिल काकोडकर समिति ने रेलवे की यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए 1ए03ए110 करोड़ रुपए देने की सिफारिश की थी।
सेफ्टी स्टॉफ की कमी
रेल सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी समस्या है सेफ्टी स्टॉफ की कमी। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे करीब एक लाख पद खाली पड़े हैं। रेलवे में सुरक्षा और संरक्षा की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003 से 2013 के दौरान रेल हादसे में दो हजार लोगों को जान गई। इन हादसों से रेलवे को 487 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक 2003 से 2013 के दौरान 1ए896 रेल हादसे हुए। अर्थात इस दौरान हर महीने औसतन 16 हादसे हुए। इसमें से 853 हादसे रेलवे कर्मचारियों की गलती के कारण हुए। हादसे की प्रमुख वजह आपसी टक्कर, पटरी से उतरना, लेवल क्रॉसिंग और आग है। जब भी कोईं बड़ा रेल हादसा होता है, रेल मंत्रालय की तरफ से सुरक्षा और बचाव के तमाम इंतजाम करने के वादे दोहराए जाते हैं। लेकिन उसपर अमल नहीं होता जिस कारण भारत में रेल हादसों की संख्या बढ़ती जा रही है।

vijonkumarpanday
ुुु