विज्ञान


गर्माते समुद्र से प्रवाल भित्तियों पर मंडराता खतरा 

नवनीत कुमार

जीवन के विविध रंगों से सजी हमारी पृथ्वी की सुन्दरता अद्भुत है। पृथ्वी की इस मनभावन सुन्दरता का कारण यहां मिलने वाले असंख्य जीव और वनस्पतियाँ हैं। इस धरती पर उपस्थित विभिन्न प्रकार के पारितंत्र जैसे मरुस्थल, नमभूमियां, पर्वतीय क्षेत्र और जलीय क्षेत्र आदि जीवन के विविध रूपों को आश्रय प्रदान करते हैं। समुद्रों में स्थित कोरल रीफ यानि प्रवाल भित्ति क्षेत्र ऐसा ही एक विशिष्ट पारितंत्र है जो जीवन के रंग-बिरंगे रूपों से सजा है। उष्णकटिबंधीय समुद्री क्षेत्र में स्थित मूंगे की चट्टानें कहलाने वाले यह विशिष्ट पारितंत्र भांति-भांति की वनस्पतियों और जीवों से समृद्ध होता है। जहाँ धरती पर उष्णकटिबंधीय वर्षावन सबसे उत्पादक व जैवविविधता से संपन्न मानें जाते हैं वहीं समुद्र में स्थित प्रवाल भित्ति क्षेत्र उत्पादकता व जैवविविधता की दृष्टि से धरती के वर्षावनों के समतुल्य हैं। 
समुद्र में रंग-बिरंगी दिखाई देने वाली प्रवाल भित्तियों को अधिकतर लोग वनस्पति समझते हैं लेकिन यह रंगीली और सुन्दर आकृतियां वनस्पति न होकर सूक्ष्म जीवों की बस्तियां होती हैं। हालांकि इनका स्थिर और रंगीला होना लोगों को इनके वनस्पति जगत से संबंधित होने संबंधी संशय में डाल देता है। प्रवालों का रंग-बिरंगा होना इनके अंदर उपस्थित शैवालों के कारण होता है। शैवालों में विशिष्ट रंजकों की उपस्थिति ही प्रवाल के रंगीलेपन के लिए उत्तरदायी होती है। प्रवाल के अंदर रहने वाली शैवाल जैसी सूक्ष्म वनस्पतियां, प्रवालों से उत्सर्जित तत्वों का उपयोग अपने विकास के लिए करती है। इन नन्हें पौधों की अनुपस्थिति में प्रवाल पारदर्शी पर्त की भांति दिखाई देंगे। प्रकृति ने प्रवाल को विकास के लिए सहजीविता के गुण से संपन्न किया है। प्रवाल अन्य जीवों के समान नाइट्रोजन व फॉस्फोरस लवण और कार्बन डाईऑक्साइड गैस मुक्त करते हैं। शैवाल यानि एल्गी इन तत्वों का उपयोग प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में करते हैं, जिसके द्वारा वह अपना भोजन बनाते हैं। शैवाल द्वारा इस प्रक्रिया में कार्बनिक पदार्थ भी बनाए जाते हैं जिनका कुछ हिस्सा प्रवाल को पोषित करने में सहायक होता है। 
प्रवाल भित्ति चट्टानी समुद्र तटों पर पाई जाने वाली सूक्ष्म जीवों की ऐसी बस्तियां है। जहाँ पॉलिप नाम के सूक्ष्मजीव समूहों में निवास करते हैं। यह पॉलिप नामक समुद्री जीव चट्टानी तटों पर पाए जाते हैं। जो अपने शरीर की सूरक्षा के लिए अपने चारों तरफ हड्डियों के ढांचे के समान कठोर आवरण बनाते हैं, यह आवरण चूने का बना होता है। इन पॉलिपों के अनेक ढांचे एक-दूसरे से मिलकर जिस ढांचे का निर्माण करते हैं उसे ही प्रवाल भित्ति कहते है। भारत का लक्षद्वीप द्वीपसमूह प्रवाल भित्तियों से निर्मित प्राकृतिक संरचना है। 
प्रत्येक प्रवाल भित्ति समूह या प्रवाल कालोनी एक पॉलिप से शुरू होकर धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। पॉलिप उभयलिंगी जीव होते हैं। एक ही पॉलिप नर और मादा दोनों के युग्मक रखता है। इस प्रकार अकेला पॉलिप भी वंशवृद्धि करता हुआ एक प्रवाल कॉलोनी बना सकता है, हालांकि प्रवाल कालोनी धीरे-धीरे ही बनती है। नए बनने वाले पॉलिप जीव आपस में एक दूसरे से ऊतकों की पतली पर्तों से जुड़े रहते हैं। क्योंकि कैल्शियम कार्बोनट का जमाव धीमी प्रक्रिया है इसलिए पॉलिपों में वृद्धि दर अत्यंत धीमी और सभी दिशाओं में होती है। पॉलिप मांसाहारी जीव होते हैं, जो छोटे-छोटे समुद्री जीवांे को अपना शिकार बनाते है। हालांकि कुछ पॉलिप मृत कार्बनिक पदार्थों को भी हजम कर लेते हैं। सूक्ष्म जीवों के शिकार के अलावा पॉलिप अपने विकास के लिए आवश्यक अन्य पोषक तत्वों को समुद्री जल से प्राप्त करते हैं। 
प्रवाल भित्ति के निर्माण के लिए कैल्शियम अतिमहत्वपूर्ण तत्व है। प्रवाल को कैल्शियम की आपूर्ति कुछ अन्य जीवों जैसे मोलास्क और चूने के शैवाल के मृत अवशेषों से भी होती है। कैल्शियम के आलाव कार्बन, ऑक्सीजन और ह्यूमिक अम्ल जैसे तत्व भी प्रवालों की वृद्धि के लिए आवश्यक होते हैं। इनमें से कार्बन और ऑक्सीजन तो समुद्री पारितंत्र से मिल जाते है लेकिन ह्यूमिक अम्ल नदियों द्वारा धरती से बहकर समुद्री जल में मिलता रहता है। प्रवाल भित्तियां उथले पानी की कटिबंधीय सामुद्रिक पारितंत्र प्रणालिया होती है। उच्च जैवमास उत्पादन और समृद्ध वनस्पति व जीव-जंतुओं की विविधता इन क्षेत्रों की विशेषता है। मन्नार की खाड़ी, पाक खाड़ी तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में प्रवाल भित्तियां पाई जाती है। प्लेटफार्म (फ्रिजिंग) भित्तियां कच्छ की खाड़ी और एटॉल भित्तियां लक्षद्वीप में पाई जाती है। भारत में संरक्षण के लिए चार प्रवाल भित्तियांे की पहचान की गई है। ये हैं- मन्नार की खाड़ी, अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह, लक्षद्वीप समूह और कच्छ की खाड़ी। प्रवाल भित्तियांे के संबंध में प्रबंध कार्ययोजनाएं बनाने और उनके क्रियान्वयन के लिए राज्यस्तरीय संचालन समितियां बनाई गई है। मंत्रालय को हिंद महासागर में अंतर्राष्ट्रीय कोरल रीफ इनिशिएटिव (आई.सी.आई.), वैश्विक कोरल रीफ निगरानी तंत्र (जी.सी.आर.एम.एल.) और कोरल रीफ डी-ग्रेडेड कार्यवाही का केंद्रबिंदु भी माना गया है। यूनेस्को के जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्रों की विश्वसूची में मन्नार की खाड़ी के प्रवाल भित्ति क्षेत्र को भी शामिल किया गया है। 

प्रवाल भित्ति की वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारक

प्रवाल भित्ति की वृद्धि को प्रभावित करने वाले तीन मुख्य कारक जल की लवणता, शुद्धता और स्थायीत्व हैं। 

  • प्रवाल 35 ग्राम प्रति लीटर लवणता वाले जल में अच्छी वृद्धि करता है। इस स्तर से कम लवणता होने पर इसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • प्रवाल की वृद्धि रसायन मुक्त जल में अच्छी होती है।
  • प्रवाल भित्ति पर एक अन्य कारक तापमान का प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। प्रवाल 20 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले जल में पर्याप्त वृद्धि कर सकता है लेकिन 10 डिग्री सेल्सियस तापमान से कम तापमान वाले जल में इनके मिलने की सम्भावना न के बराबर होती है। वैसे प्रवाल 35 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को भी सहन कर लेता है तभी तो लाल सागर और कच्छ की खाड़ी में 35 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी प्रवाल बस्तियां उपस्थित है। 

प्रवाल भित्ति का वितरण एवं प्रकार

प्रवाल भित्ति क्षेत्र महासागरों के लगभग 6ए00ए000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं। प्रवाल भित्तियां पृथ्वी पर सबसे पुराने पारितंत्र की द्योतक हैं तथा ये एक प्रकार से पृथ्वी पर सबसे बड़ी जीवित संरचना है। अधिकतर प्रवाल भित्ति क्षेत्र 30 डिग्री सेल्सियस उत्तरी और 30 डिग्री सेल्सियस दक्षिणी अक्षांशों के मध्य स्थित हैं। प्रवाल भित्तियां उथले जल में अधिक वृद्धि करती हैं। प्रवाल भित्तियों का वितरण मुख्यतः अटलांटिक महासागर के कैरेबियन क्षेत्र और इंडो-पैशिफिक क्षेत्र मंे अधिक है। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र विशेषकर पापिआ न्यू गिनी व फिलीपींस में प्रवाल भित्तियों की जैवविविधता अद्भुत है। हालांकि इस क्षेत्र की तुलना में अटलांटिक क्षेत्र में प्रवाल भित्तियों की प्रजातियां कम हैं लेकिन यहां मिलने वाली प्रवाल प्रजातियां विशिष्ट हैं।  
विभिन्न स्थलाकृतियों के अनुसार प्रवाल भित्ति को मुख्यतः तीन प्रकारों प्रवाल रोधिका, अडल रीफ यानि प्रवाल द्वीपवलय और तटीय प्रवालभित्ति में बांटा गया है। प्रवाल रोधिका विस्तृत फैले पानी द्वारा तट के सामांतर भूमि से दूर स्थित होती है जबकि प्रवाल द्वीपवलय लैगून के आसपास वाले क्षेत्रों में उपस्थित होती है। तीसरे प्रकार की अर्थात तटीय प्रवालभित्ति तट के समीप वृद्धि करती है। दक्षिण हिन्द महासागर और भारतीय समुद्री सीमा में प्रवाल द्वीपवलय की अधिक है। विश्व भर में प्रवाल भित्तियों की लगभग 800 से 1000 प्रजातियों का अनुमान लगाया गया है। प्रवाल भित्तियों की अधिकांश प्रजातियां स्थिर अवस्था में ही रहती है अर्थात वह स्थान परिवर्तन नहीं कर सकती। लेकिन मशरूम प्रवाल ऐसी प्रवाल प्रजाति है जो लगभग 30 से 40 मिमी. तक गति कर सकती है। हालांकि अधिकतर प्रवाल प्रकाश की आवश्यकता के मद्देनज़र उथले स्थान पर ही स्थिर रहते हैं। लेकिन प्रकाश की बहुत ही कम जरूरत के कारण ‘पुंज प्रवाल’ समुद्र में 1000 से 2000 मीटर तक की गहराई में भी जीवित रह सकती है। अलग-अलग प्रवाल प्रजातियों की वृद्धि दर में भी अंतर होता है। मस्तिष्क के आकार की ‘ब्रेन प्रवाल‘ में एक साल के अंदर अधिकतम एक से.मी. की वृद्धि होती है। जबकि शाखित प्रवाल में एक वर्ष में 18 से 20 से.मी. तक ही वृद्धि देखी गई है।

समुद्री वर्षावन

जैवविविधता की दृष्टि से महासागरों में स्थित प्रवाल भित्ति क्षेत्र धरती के वर्षावनों के समान महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र अतुल्य जैव विविधता रखता है। हालांकि संपूर्ण पृथ्वी के लगभग एक प्रतिशत हिस्से पर ही इनका अधिकार है परन्तु ये समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों की 25 प्रतिशत प्रजातियों का आश्रय स्थल है। प्रवाल भित्तियां जीवित हों या नहीं वे हमेशा समुद्री जीवों का आवास स्थल रहती हैं। इसीलिए समुद्र में स्थित प्रवाल क्षेत्र की तुलना धरती के वर्षावन क्षेत्र से की जा सकती है। प्रवाल भित्ति क्षेत्र में केकड़े, स्टारफिश, झींगे, डॉल्फिन, शार्क व अनेक किस्म की मछलियां और विभिन्न वनस्पतियां जैसे लाल शैवाल, हरा शैवाल, भूरा शैवाल एवं मोलास्क मिलते हैं। समुद्री वनों की जैवविविधता का कारण वहां विशिष्ट वातावरण का उपस्थित होना है। इन क्षेत्रों में नम व गर्म जलवायु के साथ सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता जीवन की विविधता का कारण होता है। यहाँ वातावरण लगभग पूरे वर्ष एक जैसा ही रहता है। इसके अलावा प्रवाल भित्ति पारितंत्र वर्षावनों से अधिक अधिक पुराना है जिसके कारण विभिन्न जीवों ने अपने आपको यहाँ के वातावरण के प्रति ढाल लिया है। दुनिया की पचास करोड़ आबादी अपनी जीविका के लिए प्रवाल भित्तियों पर निर्भर है। 2050 तक इनके पूरी तरह खत्म हो जानी की भविष्यवाणी अगर सच हो गयी तो लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीन जाएगी।  

भारत में स्थित प्रवाल भित्ति क्षेत्र

भारत की अंतर्जलीय सांस्कृतिक विरासत अति समृद्ध है। यहाँ के समुद्री पर्यावरण में प्रजातियों तथा प्राकृतिक आवास की काफी विविधता है। भारत का प्रवाल भित्ति क्षेत्र करीब 2ए375 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है जो अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप द्वीपसमूह, मन्नार की खाड़ी और कच्च की खाड़ी आदि क्षेत्रों में स्थित है। यहां के नदी मुख, समुद्री झील, समुद्र तट, बालू के टीले, कच्छ वनस्पतियां और प्रवाल भित्तियां जैविक विविधता का भंडार है। भारत में अभी तक कोरल की 206 प्रजातियां पाई गई है जिनमें से अधिकतर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित है। भारत के तटीय क्षेत्रों में प्रवाल भित्ति का फैलाव असमान है। भारत के मध्य पूर्व तट पर अनेक नदियों के द्वारा भारी मात्रा में समुद्र में मलवा गिराया जाता है जिससे इस क्षेत्र में प्रवाल भित्ति की सघनता में कमी आई है। भारत के पश्चिमी तट पर अधिक वर्षा से जल की लवणता के प्रभावित होने से वहां प्रवाल भित्ति की वृद्धि दर पर नकारात्मक असर होता है। देश में कठोर व कोमल प्रवालों दोनों पर लक्षित अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिए मंत्रालय ने पोर्टब्लेयर में राष्ट्रीय प्रवाल भित्ति शोध केंद्र की स्थापना की है। पर्यावरण मंत्रालय में कच्छ वनस्पति और प्रवाल भित्ति पर एक राष्ट्रीय समिति और एक शोध उप-समिति है। भारत में प्रवालों से संबंधित सभी पहलुओं पर और अधिक ध्यान देने के उद्देश्य से प्रवाल भित्तियों के संरक्षण व प्रबंधन हेतु कार्यनीति पर विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों के एक कार्यदल का भी गठन किया गया है। 

विश्व का आठवां आश्चर्य-ग्रेट बेरियर रीफ

‘ग्रेट बेरियर रीफ‘ समुद्र में निर्मित सबसे बड़ी प्राकृतिक संरचना है जिसका निर्माण किसी एक प्रकार के जीवों यानि प्रवालों से हुआ है। विश्व का सबसे बड़ा प्रवाल तंत्र के रूप में चिन्हित किया गया ग्रेट बेरियर रीफ क्षेत्र करीब 344ए400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इस क्षेत्र में 400 प्रजातियों के प्रवाल मिलते हैं। इस अद्भुत प्राकृतिक निर्माण को सन् 1981 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया है। आस्ट्रेलिया में स्थित प्रकृति की यह विलक्षण रचना ‘ग्रेट बेरियर रीफ‘ जैवविविधता से समृद्ध है। यहां मछलियों की 1500 से अधिक प्रजातियां पाई जाती है। प्रति वर्ष विश्व भर से करीब 20 लाख पर्यटक प्रकृति की इस संुदर और अद्भूत रचना को देखने आते हैं। इस क्षेत्र का अधिकतर हिस्सा ‘ग्रेट बेरियर रीफ मैरीन पार्क’ के संरक्षित क्षेत्र में फैला है। इस पार्क द्वारा प्रदूषण और मानवीय गतिविधियों से प्राकृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के लिए व्यापक अभियान चलाए जाने के साथ जनमानस में प्रवाल क्षेत्र की समृद्ध जैविविधता के महत्व को प्रचारित किया गया है ताकि यहाँ की सुंदरता को बनाए रखा जा सके।

प्रवाल भित्ति और पर्यावरण 

पृथ्वी के विभिन्न पारितंत्रों में आपसी समन्वय ही जीवन की विविधता को बनाए हुए है। प्रवाल भित्ति भी अन्य पारितंत्रों के साथ जीवन के विकास में सहायक है। उदाहरण के लिए प्रवाल भित्ति द्वारा निर्मित चट्टानें तट पर पहंुचने वाली समुद्री लहरों की गति कम कर देती हैं जिससे वहाँ मैंग्रोव आदि वनस्पतियां पनप सकती हैं। यदि प्रवाल भित्ति द्वारा निर्मित चट्टाननुमा संरचना न हो तो लहरों की तेज बहाव मैंग्रोव के विकास को बाधित कर सकता है। यह तो हम जानते ही हैं कि मैंग्रोव वनस्पति की अच्छी संख्या न केवल समृद्ध जैवविविधता को आश्रय प्रदान करती है वरन् विध्वंसकारी सुनामी लहरों से भी तटीय क्षेत्र की रक्षा करने में समर्थ हो सकती है। समुद्री लहरों के प्रकोप से तट पर बसे लोगों को बचाने में प्रवाल भित्ति की भूमिका अहम है। इसका एक उदाहरण फ्लोरिडा शहर है। अगर वहां प्रवाल भित्तियां न होती तो यह शहर समुद्र में डूब चुका होता। 

प्रवाल भित्ति को बढ़ता खतरा

तटीय क्षेत्र में बढ़ते निर्माण कार्यों, औद्योगिक और बाहरी बहिस्राव से होने वाली पोषक तत्वों की कमी, भूमि उद्धार और मत्स्य एवं पर्यटन उद्योगों में विकास से प्रवाल भित्ति की विविधता प्रभावित होने के साथ उनमें कमी भी आ रही है। इन कारणों के अलावा तटीय खनन कार्यों से प्रवाल भित्ति पर सर्वाधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विश्व का औसतन दस प्रतिशत प्रवाल भित्ति क्षेत्र नष्ट हो चुका है। विश्व के 93 देशों में उपस्थित प्रवाल भित्ति क्षेत्र क्षतिग्रस्त स्थिति में है। कृषि कार्यों और खनिज दोहन में अंधाधुंध वृद्धि के कारण समुद्री तटों के समीप बढ़ते अवसाद से प्रवाल भित्ति का स्वास्थय गड़बड़ा गया है। सामान्यतया घनी बसावट वाले तटीय क्षेत्रों में स्थित प्रवाल भित्ति क्षेत्र की क्षरण दर अधिक है। कृषि क्षेत्र के विस्तार की प्रक्रिया में तटीय मैंग्रोव यानि कच्छ वनस्पति क्षेत्रों के सफाए से भी इस विशिष्ट पारितंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। भारत में लक्षद्वीप की प्रवाल भित्तियों को भूमि क्षरण से गंभीर नुकसान हुआ है। इसी प्रकार मन्नार की खाड़ी में विशेषकर तूतीकोरन और मंडापम क्षेत्रों में प्रवाल भित्तियों का क्षेत्र संकुचित हुआ है। मानवीय गतिविधियों के अलावा समुद्र में आने वाले तूफानों और उच्च ज्वार-भाटा के कारण प्रवाल बड़ी संख्या में मृत होती है। प्रशांत महासागर मंे आने वाले हरीकेन तूफान प्रवाल भित्ति को काफी क्षति पहुँचाते हैं। कई बार ज्वार-भाटे के दौरान तटीय प्रवाल भित्ति क्षेत्र कई घंटों तक खुले वातावरण में रहने से मृत प्राय हो जाते है। ला नीनों से प्रवाल को ब्लैक बैंड नामक बीमारी होती है। प्रवाल भित्ति समुद्री जल में उथल-पुथल से भी प्रभावित होती है। 
गर्मियों में तापमान के अधिक हो जाने पर अधिकांश प्रवालों का रंग परिवर्तित हो जाता है। प्रवालों में रंग परिवर्तन की यह घटना विरंजन यानी रंग उड़ना कहलाती है। जिसके प्रभाव से कई प्रवालों का रंग सफेद हो जाता है। हालांकि प्रवालों का वास्तविक रंग कुछ दिनों या दो-तीन हफ्तों में पुनः आ जाता है। लेकिन कभी-कभी समुद्री जल के तापमान का बढ़ना प्रवालों के लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है। वर्ष 1998 में समुद्री जल के तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी होने से कटिबंधीय क्षेत्रों में स्थित प्रवालों में से कई प्रवाल नष्ट हो गए थे। उस वर्ष इस घटना का प्रभाव 40 से अधिक देशों की सीमा क्षेत्र में स्थित प्रवाल भित्तियों पर देखा गया था। हमारे देश में भी इस घटना से प्रवालों को काफी नुकसान पहुंचा था। अकेेले अंडमान और निकोबार क्षेत्र में स्थित कुल प्रवाल भित्तियों में से तीन चौथाई प्रवाल भित्तियां नष्ट हो गई थी। हाल के दशकांे में प्रवालों का रंग फीका पड़ने की समस्या अधिक गंभीर हुई है। प्रवालों का रंग तब फीका पड़ने लगता है जब इनके भीतर सहजीवी की हैसियत से रहने वाले शैवाल मर जाते हैं और मूंगों का ढंाचा ‘नंगा’ हो जाता है। ऐसेे में खुले प्रवाल अत्यधिक ग्रर्मी, विभिन्न रासायनों और पराबैंगनीं विकिरणों के सीधे सम्पर्क में आ जाते हैं और अपनी रंगत खोने लगते हैं। इटली के वैज्ञानिक एंटोनिया पसेड्डू ने अपने अध्ययन में यह पाया कि समुद्र स्नान के वक्त धूप से बचने के लिए उपयोग की जाने वाली सनस्क्रीन क्रीम में मौजूद पैराबेन्स, सिनामेट्स, बेन्जोफिनोन्स एवं कैम्फर जैसे रसायन प्रवाल भित्ति के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं। ये रसायन शैवाल के भीतर सुप्तावस्था में पड़े वायरस को सक्रिय कर देते हैं और यह वायरस शैवाल को नष्ट कर देता है। परिणामस्वरूप तीन-चार दिन में ही प्रवाल एक सफेद ढंाचा बनकर रह जाता है। कुछ समुद्री जीव विशेषकर पैरेट फिश यानि शुक्रमीन, बटरफ्लाय फिश, और स्टारफिश यानि तारामीन प्रवाल भित्ति को काफी नुकसान पहुंचाते है। शुक्रमीन अपने शक्तिशाली दांतों से प्रवाल भित्ति को चीर-फाड़ कर उन्हें नष्ट कर देती है जबकि बटरफ्लाय मछली कोरल को कुतर-कुतर कर खाती है। तारामीन का पॉलिपों को अपना शिकार बनाने का अद्भूत तरीका है, यह पूरे पॉलिप को ढक लेती है और फिर उसके ऊतकों को चूसती है। 

गर्माते जल का खतरा प्रवालों पर

हाल में लंदन में समुद्रविज्ञानियों का एक वैश्विक सम्मेलन हुआ जिसमें आम राय थी कि समुद्रों के अंदर 2014 से एक हीट वेव चल रही है जो 2016 तक और विनाशकारी हो जाएगी। समुद्री इलाकों में ऐसा संहार अब से पहले सिर्फ 1998 और 2010 में ही देखा गया था। समुद्री इलाकों में ऐसी परिस्थिति से सबसे अधिक खतरा प्रवाल भित्तियों यानी कोरल रीफ पर है। प्रवाल भित्तियों पर अध्ययन कर रहे लोगों का कहना है कि इस वर्ष दुनिया की आधी से अधिक प्रवाल भित्तियां ब्लीच हो जाएंगी और चितां की बात यह है कि इनमें से करीबन आठ प्रतिशत को दोबारा जिंदा होने का अवसर नहीं मिलेगा। असल में ब्लीचिंग में रंग-बिरंगी समुद्री जंगल सूखकर सफेद हो जाते हैं। इन्हीं समुद्री रंगीले जंगलों को अधिकतर प्रवाल भित्तियां अपना भोजन बनाते हैं। पानी के गर्म हो जाने पर ये जंगल तेजी से सफेद हो जाते हैं जिससे प्रवाल भित्तियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। हालांकि थोड़े अंतराल पर यदि वापिस जंगल हरे-भरे हो जाएं तो प्रवाल भित्तियां वापिस जी उठती हैं। लेकिन यदि समुद्री पानी काफी समय जैसे कई महीनों या एक-दो साल तक गर्म रहे तो ऐसे में उन पर निर्भर प्रवाल भित्तियां मर जाती हैं। फिर सफेद हुई भित्तियां काई से ढक जाती हैं और वहां छोटे पौधों के लौटने की संभावना कम होती है। क्योंकि समुद्र में काई उन्हीं इलाकों से खत्म होती है जहां मछलियां ज्यादा होती हैं। कम मछलियों वाले समुद्री इलाकों से काई खत्म नहीं होती है और वहां से प्रवाल भित्तियां समाप्त हो जाती हैं। 

बनी रहने दें इस अनोखी दुनिया को

एक अनुमान के अनुसार अगर विभिन्न कारणों से प्रवाल भित्तियांे का खात्मा इसी प्रकार होता रहा तो 2050 तक 70 प्रतिशत प्रवाल भित्तियां समाप्त हो जाएंगी और तब इसके परिणामस्वरूप जैवविविधता में काफी कमी आएगी। असल में समृद्ध जैवविविधता किसी भी परितंत्र में न केवल स्थायित्व लाती है वरन् यह किसी भी क्षेत्र में जैविक उत्पादकता की वृद्धि में भी सहायक होती है। प्रवाल क्षेत्र असंख्य समुद्री जीवों को आवास प्रदान करने के साथ तट को अपरदन से बचाता है। लेकिन वर्तमान में जैवविविधता से समृद्ध प्रवाल क्षेत्रों को प्रदूषण, अवसाद और जलवायु परिवर्तन से खतरा बढ़ता जा रहा है। तटीय पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए आमूल परिवर्तनकारी नयी संकल्पनाओं की आवश्यकता के साथ ही प्रवाल क्षेत्रों के प्रबंधन पर घ्यान देना होगा। इसके अंतर्गत मछली पालन की उन्नत व दक्ष तकनीकों का बढ़ावा देने के साथ समुद्री जल में मिलने से पहले अपशिष्ट पदार्थों का शोधन किया जाना भी आवश्यक है। तटीय क्षेत्रों में किए जा रहे खनन कार्यों का स्थानीय पारितंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का आंकलन किया जाना आवश्यक है ताकि जैवविविधता के साथ प्राकृतिक सौंदर्य भी अप्रभावित रह सके। जीवन के विविध रूपों को संवारने एवं प्रवाल भित्ति जैसे समृद्ध पारितंत्र को इस ग्रह पर बनाए रखने के लिए मानव को प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते रहना होगा तभी धरती पर जैवविविधता का खजाना कभी खाली नहीं होगा। इसके लिए हम सभी को प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रवाल भित्ति जैसे विभिन्न पारितंत्रों के संरक्षण के प्रति सचेत व सजग रहना होगा। तभी यह धरती संुदर और जीवन को पनाह देने वाली बनी रहेगी। 
प्रवाल भित्ति दुनिया की सबसे विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में शुमार की जाती है। लेकिन इनका 60 प्रतिशत हिस्सा जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की मार झेल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगर्वनमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) संस्था के अनुसार यदि पृथ्वी के औसत तापमान में इसी दर से वृद्धि होती रही तो इस सदी के अंत तक प्रवाल भित्ति का नामोनिशान नहीं मिलेगा। पैनल की रिपोर्ट के अनुसार समुद्रों का तापमान और अम्लता बढ़ने से कोरल जीवों को कैल्यियम आधारित शेल बनाए रखने में दिक्कत आएगी। विज्ञानियों का यह भी कहना है कि अगर कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन कम नहीं किया तो आस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ के साथ अनेक मूंगा चट्टानें हमारे देखते-देखते खत्म हो जाएगी। इस अंक में हम पाठकों को हमारी पृथ्वी पर उपस्थिति एक अन्य महत्वपूर्ण अतिउत्पादक परंतु नाजुक पारितंत्र की जानकारी दे रहे हैं। 

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