विज्ञान


हरित भवन और पर्यावरण की अनुकूलता

डॉ. दिनेष मणि

वैश्विक तापन, जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याओं को देखते हुए वर्तमान में हरित भवन की अवधारणा अत्यन्त प्रासंगिक हो गयी है। भवन आश्रय प्रदान करने के साथ-साथ पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। पर्यावरण अनुकूल भवन मूलतः उन भवनों को कहा जाता है जो पर्यावरण को कम प्रभावित करें, संसाधनों की खपत कम करें और प्रदूषण कम उत्पन्न करें। भवन निर्माण की योजना बनाने के लिए निर्माण, उपयोग, नवीनीकरण और धराशायी करने तक किसी भी स्तर पर पर्यावरण अनुकूल तरीकों को अपनाया जा सकता है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ परिणाम के लिए निर्माण योजना के समय इन तरीकों को अपनाना आवश्यक है। भवन निर्माण में उर्जा संरक्षण, जल, पर्यावरण अनुकूल भवन निर्माण सामग्री, वर्षा जल संचयन, विषाक्त पदार्थों का न्यूनतम उपयोग, स्वस्थ आंतरिक पर्यावरण तथा सतत विकास का ध्यान रखते हुए कार्ययोजना बनाये जाने की आवश्यकता है।
भवनों में हरित तकनीकों का इस्तेमाल करने से न केवल ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा, बल्कि बिजली और पानी पर लागत भी घटेगी इसके लिए डिजाइन के स्तर पर सटीक योजना बनाने और सही सामग्री व उपकरणों का इस्तेमाल करने की जरूरत होगी। आज दुनिया के 40 प्रतिशत से अधिक उर्जा का इस्तेमाल भवनों में होता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी.) के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 38 प्रतिशत उर्जा का इस्तेमाल भवनों में होने लगेगा। इस प्रक्रिया में 3800 मेगाटन कार्बन उत्सर्जित होगा। वर्ल्ड वॉच इन्स्टीच्यूट के अनुसार दुनिया के ताजे पानी का छठवां हिस्सा भवनों में इस्तेमाल होता है। कुल जितनी लकड़ी पैदा होती है उसका एक चौथाई हिस्सा और उसकी सामग्री व उर्जा का 40 प्रतिशत हिस्सा भी भवनों पर खर्च होता है। यदि भवनों का निर्माण ग्रीन डिजाइन के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाये तो 40 प्रतिशत या उससे भी अधिक उर्जा बचाई जा सकती है।
पर्यावरण और जलवायु में परिवर्तन से संबन्धित चिंताओं के चलते विकसित देशों की कम्पनियों के साथ भारतीय कम्पनियाँ भी अपने व्यवसायिक परिसरों को हरित भवन (ग्रीन बिल्डिंग) का रूप देने लगी हैं। ऐसे भवनों का निर्माण प्रकृति के साथ संतुलन और बिजली की बचत की अवधारणा पर आधारित है।
एक अन्य अध्ययन के अनुसार हरित भवनों की रहवास क्षमता 6 से 26 प्रतिशत तक बढ़ायी जा सकती है और इस तरह ष्वसन सम्बन्धी बीमारियों में 9 से 20 प्रतिशत तक की कमी संम्भव है। आई.पी.सी.सी. की चतुर्थ आकलन रपट के अनुसार भवनों में इस्तेमाल होने वाली उर्जा से उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साईड की मात्रा में वर्ष 2020 तक 29 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है और वह बगैर किसी अतिरिक्त लागत के। रपट का आकलन है कि इस क्षेत्र को 70 प्रतिशत तक अधिक उर्जा कुशल बनाया जा सकता है। भारत में निर्माण उद्योग हर साल 13 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। खर्च कच्ची सामग्री के इस्तेमाल और इसके पर्यावरणीय प्रभावों के दृष्टिकोण से इस उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका है, हरित भवन से हमारा आशय परम्परागत भवनों के बदले में ऐसे भवनों के बनाने से है जिनमें कम से कम उर्जा, पानी एवं प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करके न्यूनतम हानिकारक अवशिष्ट का उत्पाद होता है। हरित भवन में रहने वाले लोग परम्परागत भवनों में रहने वालों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ होते हैं। हरित भवन लगभग 30 प्रतिशत उर्जा एवं पचास प्रतिशत पानी की बचत करता है। एक हरित भवन में निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए-
प्रकाश, वायु, इत्यादि प्राकृतिक संसाधनों के इष्टतम व्यवहार द्वारा कृत्रिम शीत तथा प्रकाश की कमी। पेयजल का पुनः परिचालन। 
पुनः चालित उड़न राख से बनी ईंट, औद्योगिक एवं निर्माण धूल इत्यादि का उपयोग। वर्षा जल का संरक्षण एवं पुनः उपयोग। 
अपशिष्टों का सम्मिश्रण। कृत्रिम प्रकाश तथा शांति के लिए नए तथा नवीनीकरण योग्य उर्जा स्रोतांे का उपयोग।  न्यूनतम कागजों का उपयोग, दीवाल रंगने हेतु रांगा युक्त रंगों का उपयोग आदि।
इस समय देश में लगभग चालीस भवन ऐसे हैं जो हरित श्रेणी में आते हैं। करीब दस से बारह कम्पनियां ऐसी हैं जो हरित भवनों की सलाहकार हैं। हरित भवनों के निर्माण में प्राकृतिक प्रकाश का ज्यादा से ज्यादा उपयोग होता है और वहाँ काम करने वाले लोग स्वयं को प्रकृति से जुड़ा समझते हैं। इस प्रकार बीस से तीस प्रतिशत उर्जा की बचत होती है। इसके साथ ही कर्मचारी की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है। वास्तव में एक हरित भवन अपने सम्पूर्ण जीवन अवधि के दौरान पर्यावरण पर अच्छा खासा प्रभाव डालता है। भवन के निर्माण और उसके रख-रखाव में जमीन, वन, जल, और उर्जा की खपत होती है। जल प्रबन्धन, प्राकृतिक उर्जा, स्थानीय कच्चा माल इत्यादि के प्रयोग के द्वारा हरित भवन का निर्माण वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। प्रायः यह देखा गया है कि निर्माण उद्योग तथा निर्माण कार्यो में भवनों तथा इसके निर्माण से जुड़ी सामग्री पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। भवन में रहने वालों के अतिरिक्त, संलग्न परिवेश तथा समग्र विश्व के वायुमण्डल पर भी प्रभाव पड़ता है। निर्माणाधीन परियोजनायें प्रत्यक्ष रूप से उत्पन्न करती हैं तथा ध्वनि प्रदूषण वायुमण्डल में धूल पर्यावरण के साथ-साथ जल को भी प्रदूषित कर देती है। निर्माण उद्योग से जुड़े पेशेवर ऐसे प्रतिकूल प्रभाव के बारे में पूरे जानकार होते हुए भी उनके व्यवसायिक उद्देश्य से समझौता नहीं कर पाते हैं। उनमें से बहुत कम ही, निर्माण से जुड़े पर्यावरण के विषम प्रभाव पर ध्यान देते हैं। उनका ध्येय तो बस लागत, समय एवं गुणवत्ता पर होता है। पर्यावरण की उनको कोई परवाह नहीं होती ।
यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हम लागत तथा एवं गुणवत्ता के साथ-साथ पर्यावरण सुरक्षा पर भी उचित ध्यान दंे जिससे यह धरती हमारे लिए सदा रहने लायक रहे। कोई भी परियोजना मुख्यतः अभिकल्पन निर्माण परिचालन पर आधारित होती है। निर्माण के दौरान अभिकल्पकार, मालिक, प्रस्तुतकर्ता आदि सभी के समन्वय एवं सहयोग से हरित भवन बनाया जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत अच्छा पर्यावरण, मौलिक अधिकार एवं अनुच्छेद 51 ए के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण मौलिक कर्तव्य है। विकास कार्य से पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव के आकलन की पद्धति को पर्यावारणीय प्रभाव मूल्यांकन कहा जाता है। निर्माण पद्धति का चयन सार्थक लागत एवं स्वस्थ पर्यावरण को ध्यान में रखकर करना चाहिए। यूनाईटेड स्टेट्स ग्रीन बिल्डिंग काउन्सिल ने लीडरशिप इन एनर्जी एण्ड एनवायर्नमेंटल डिजाइन पद्धति हरित भवनों की श्रेणी निर्धारण हेतु लागू किया है। मानदण्डों का अनुपालन करते हुए यह दीर्घस्थाई भवन निर्माण हेतु एक स्वैच्छिक संस्थान है। मानदण्डों का उद्देश्य हरित भवन से परिवेश पर दीर्घस्थाई प्रभावों का आकलन करना है।
एल.ई.ई.डी. द्वारा श्रेणी निर्धारण मूलतः वातानूकूलित भवनों में उर्जा बचत पर आधारित है। भारत में श्रेणी निर्धारण पद्धति ‘गृह’ (GRIHA) देश के समस्त प्रकार के मौसम को ध्यान में रखकर बनाया गया है। प्रारम्भ में श्रेणी निर्धारण की यह प्रक्रिया द एनर्जी एण्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट (TERI) द्वारा टेरी गृह नाम से संकल्पित तथा विकसित किया गया था। इस प्रक्रिया में अनेक वास्तुकार एवं विशेषज्ञों की सलाह ली गई। इसमें एन.बी.सी. 2005 (NBC 2005) प्रावधानों तथा बी.ई.ई. (BEE) द्वारा जारी ‘एनर्जी बिल्डिंग कन्सर्वेसन कोड 2007’ अन्य आई.एस. कोड एवं स्थानीय उप नियमों/कानूनों को सम्मिलित किया गया है। हैदराबाद स्थित भारतीय ग्रीन बिल्डिंग काउन्सिल भारतीय उद्योग परिसंघ से लाइसेंस प्राप्त एक संस्थान है जो उपरोक्त भारतीय तथा अमेरिकी मानदण्डों के प्रावधानों के तहत हरित भवन को सत्यापित करता है। ‘एल.ई.ई.डी.’ तथा ‘गृह’ इन दोनों प्रमाणकों, निर्माण शिल्प की निरन्तरता हेतु विकसित किया है। हरित भवन तैयार करने के लिए प्रारम्भ से ही इसका अभिकल्पन निर्माण रख-रखाव तथा उपयोग से पर्यावरण से होने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर किया जाता है। हरित भवन की विशेषता है- विकसित उर्जा दक्षता, स्थान का सही उपयोग, कच्चे माल के प्रति संवेदनशीलता, जलसंरक्षण, भवनों के अंदर अच्छी हवा, अधिक टिकाऊ तथा आरामदेह, प्रदूषण में कमी तथा प्राकृतिक संपदा में बचत और स्वास्थ्यप्रदता।
किसी हरित भवन के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण घटक इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री होती है, लेकिन उसी की सर्वाधिक उपेक्षा की जाती है, हमारे भवन के मानक केवल संचालन ऊर्जा को कम करने पर ध्यान देते हैं और अन्य महत्वपूर्ण कारकों जैसे पानी, अपशिष्ट पदार्थों, घर के अंदर के वायु प्रदूषण, कच्ची निर्माण सामग्री, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल इत्यादि को यूं ही छोड़ दिया जाता है।
हरित भवनों के सम्बन्ध में सबसे बड़ी हिचक इस बात को लेकर है कि इनके निर्माण में सामान्य भवनों की तुलना में छह प्रतिशत पूँजी अधिक लगती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल पूँजीगत लागत ही अधिक होती है। अन्य लगातार होने वाले खर्च इसमें घटते जाते हैं और इस तरह बढ़ी हुई पूँजीगत लागत की भरपाई एक या दो साल में हो सकती है। बेंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने विभिन्न निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले भवनों का तुलनात्मक आकलन किया। इसमें पाया गया कि एक बेहद मजबूत कंक्रीट निर्मित बहुमंजिला इमारत में ऊर्जा की खपत 4.21 गीगाजूल प्रतिवर्गमीटर रही, जबकि ईंटों से बनी पारंपरिक दो मंजिला इमारत में यही खपत 2.92 गीगाजूल प्रति वर्गमीटर रही, जो 30 प्रतिशत कम है। कई आर्किटेक्ट और भवन निर्माता पारंपरिक निर्माण सामग्रियों जैसे मिट्टी, चिकनी मिट्टी, सूखी घास, पत्थर, लकड़ी और बांस को लेकर अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें प्लास्टर की कोई जरूरत नहीं होती है और इस तरह निर्माण की लागत भी कम हो जाती है।
एक हरित भवन की सबसे अहम जरूरत यह है कि उसमें अधिकतम ऊर्जा कार्य निष्पादन होना चाहिए, ताकि वहां के रहवासियों को वांछित तापमान और उचित प्रकाश मिल सके। अधिकतम ऊर्जा कार्य निष्पादन किसी भवन की डिजाइन में ऐसी सौर ऊर्जा तकनीकों व भवन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करने से प्राप्त होना जिनसे परम्परागत प्रणालियों पर न्यूनतम भार आये।
ठंडे मौसम वाले क्षेत्र में स्थित किसी भवन के लिए ऐसे उपाय अपनाना जरूरी है कि सूर्य से मिलने वाली गर्मी का अधिकतम दोहन किया जा सके। इंसुलेशन का निर्माण और चमकरहित दोपहर की रोशनी ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं। भवन का एक हिस्सा जमीन के भीतर रहने से भी अंदरूनी तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हवा व सूर्य की रोशनी के आगमन व अवरोध में किसी भी भवन के लैंडस्केप की अहम् भूमिका होती है। टेरेस गार्डन घर को अंदर से शीतल रखता है।
देश में द्रुतगति से निरन्तर हो रहे नित नए-नए निर्माण कार्यों की वजह से पर्यावरण को अब तक बहुत क्षति पहुंची है। इस दृष्टिकोण से इन गतिविधियों पर पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में नियंत्रण जरूरी था। पर्यावरण तथा वन मंत्रालय द्वारा ऐसी परियोजनाओं के लिए पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने की षर्त एक प्रशंसनीय कदम है। ऊर्जा, जल, प्राकृतिक संपदा को पुनः उपयोग में लाकर कम से कम अपशिष्ट उत्पन्न करते हुए पर्यावरण को सुरक्षित एवं प्रदूषणमुक्त रखने मे हरित भवन की अवधारणा निश्चित रूप से सराहनीय है।
जलवायु परिस्थितियाँ भवन के ऊर्जा निष्पादन पर प्रभाव डालने वाली प्रमुख शक्तियाँ हैं। भवन एनवेलप (छतों, दीवारों और खिड़कियों की व्यवस्था), भवन का सही अभिविन्यास और दिवाप्रकाश के पर्याप्त प्रावधान के लिए सामग्री और प्रौद्योगिकी का विवेकपूर्ण चयन ऊर्जा क्षमता में काफी सुधार और भवनों में कार्बन फुटप्रिंट को कम कर सकता है। ऐसी कई वास्तुशिल्प अभिकल्प विशेषताएँ हैं जो भवन की ऊर्जा निष्पादन क्षमता को प्रभावित करती हैं। प्रमुख विशेषताओं में निर्माण स्थल, निर्माण स्थिति (जलवायु), आकार-प्रकार, ग्लेजिंग प्रकार, मंजिलों की संख्या, दिवाप्रकाश तथा अभिविन्यास, शीतलन के लिए संवातन, छायांकन उपकरणों तथा खिड़कियों के आकारों, पुनः उपयोग या स्थानीय सामग्री की उपलब्धता, संभावित ऊष्मा द्वीप प्रभाव को कम करने या प्राकृतिक छायांकन इत्यादि उपलब्ध कराने हेतु क्षमता प्रदान करना है। भवनों में कार्बन फुटप्रिंट में कमी करने और ऊर्जा निष्पादन की क्षमता बढ़ाने के लिए, सन्निहित ऊर्जा की संगणना, विभिन्न प्रकार की सामग्रियों और सीएसआईआर-सीबीआरआई में विकसित प्रौद्योगिकियों में CO2 उत्सर्जन को कम करने की क्षमता है। परिणामों से पता चलता है कि इनमें अभिनव निर्माण पद्धतियों द्वारा बहुत अधिक CO2 उत्सर्जन को कम करने की क्षमता होती है।
    भवनों में खपत होने वाली कुल ऊर्जा का 60 प्रतिशत तापीय सुख के लिए उपयोग किया जाता है। इस ऊर्जा का संरक्षण भवन के अभिविन्यास खिड़कियों की व्यवस्था, छत तथा दीवारों पर ध्यान देकर किया जा सकता है। भवन अभिविन्यास मुख्य रूप से खिड़कियों की व्यवस्था के उन्मुखीकरण के कारण ऊर्जा निष्पादन पर सीधा प्रभाव डालता है तथा एक अभिकल्प के परिधि क्षेत्र में उपयोगी दिवाप्रकाश प्रदान करने की क्षमता पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। भवनों में तापीय सुख के लिए सबसे अच्छा अभिविन्यास वह है जो सर्दियों में अधिकतम और गर्मियांे में न्यूनतम सौर विकिरण प्रदान करता है। एनवेलप में अपारदर्शी घटक, खिड़कियों की व्यवस्था और निम्न तापीय संप्रेषण (यू-फैक्टर), तापीय संहिता का उपयोग तथा सौर ऊष्मा वृद्धि पर नियंत्रण आदि विशेषताएँ होती हैं। भवन निर्माण एनवेलप घटकों और उनके विन्यास, ऊष्मा लाभ या हानि तथा भवन में प्रवेश करने वाली हवा की मात्रा को निर्धारित करता है। भवन एनवेलप के प्राथमिक घटक जो एक भवन के निष्पादन को प्रभावित करते हैं, वे हैं- दीवारें, छत और खिड़कियों की व्यवस्था।
दीवारें भवन एनवेलप का एक प्रमुख हिस्सा होती हैं, जिनका बाहरी वातावरण स्थितियों में गर्मी भंडारण क्षमता की स्थिति तथा प्राकृतिक रूप से हवादार भवनों में इनडोर तापीय सुख पर वातानुकूलन भवनों में शीतलन भारों, ऊष्मा का संचालन विशेषता पर प्रमुख प्रभाव पड़ता है। दीवार की तापीय रोधकता, तापीय प्रवाहकता को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भवन की छत दिनभर गर्मी प्राप्त करती है और आरसीसी छत उच्च तापीय चालकता वाली होती है। यदि छत सौर गर्मी में तपती है, तो घर के अंदर का तापमान भी दिन के चढ़ने पर बढ़ जाएगा तथा वातानुकूलन के भार में वृद्धि होगी। जब इमारतें वातानुकूलित होती हैं तो इस प्रणाली का उद्देश्य भवन के अंदर के तापमान को अपेक्षाकृत कम रखना होता है। यदि छत को गर्मी से बचाए रखने के लिए समुचित रोधन से बचाया जाता है तो अन्दर के तापमान को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है ताकि इमारत के अंदर का तापमान दिन भर के परिवेशी तापमान की अपेक्षा कम रहे। छत का तापमान कम करने के लिए छत का तापीय रोधन आवश्यक है क्योंकि अधिकतर हस्तांतरण ( >60%) छत के माध्यम से ही होता है। मिश्रित जलवायु में बाहरी छत के तापीय रोधन का उपयोग बहुत ही प्रभावी होता है।
    खिड़कियों की व्यवस्था का ऊर्जा बचत क्षमता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। ग्लेजिंग भी दिवाप्रकाश देती है तथा रहने वाले को बेहतर विचार प्रदान करती है, उन्हें बाहर की दुनिया से जोड़ती है और सुख तथा उत्पादकता में सुधार करती है। खिड़कियों की व्यवस्था का अभिकल्प, ऊष्मन, शीतलन तथा दिवाप्रकाश के बीच उचित संतुलन सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है, जबकि खिड़कियों की उचित व्यवस्था के माध्यम से सौर ऊष्मा की तपन को नियंत्रित करने के लिए ओरिएंटेशन सेंसिटव माध्यम से विद्युत की खपत को कम किया जा सकता है। विंडो टु ऑल की संस्तुति की जाती है, जबकि ओरियेंटेशनों से अधिक प्रकाश मिलता है। वहाँ पर सौर ऊष्मा में थोड़ी वृद्धि बहुत अधिक महत्व नहीं रखती। बाहरी तरफ दक्षिण की ओर शेडिंग जैसे ओवरहैंग्स सौर ऊष्मा का नियंत्रित करने में मदद करते हैं। एनवेलप के अन्य विकल्प जो उपयोग में लाए जा सकते हैं, वे इस प्रकार हैं (i) दरवाजे के अनियंत्रित उपयोग के माध्यम से बाह्य वातावरण को घटाने के क्रम में वेस्टीबुल्स के उपयोग को सम्मिलित करना विचारणीय है। (ii) विशेष पीतल और हरे रंग से रंगे हुए ग्लास और अत्यधिक परावर्तक घटक वाले ग्लास या निम्न स्तरीय ई-कोटिंग्स के उपयोग से बचना चाहिए। ये न केवल देखने के कणों की पारदर्शिता को कम करते हैं बल्कि व दृश्यता की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
दिवाप्रकाश के कारण भवनों के आकार-प्रकार, उनके एकीकरण के लिए संरचनात्मक मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल तथा वास्तुकलात्मक बिन्दुओं की दृष्टि से अभिकल्प किए जाते हैं। दिवाप्रकाश ऊर्जा के निष्पादन को बढ़ाता है तथा भवन के आकार और कीमत को भी प्रभावित करता है। पंखों के आकार का छोटा होना, डक्ट वर्क और कुल कूलिंग भार कम होने के कारण कूलिंग उपकरणों का कम उपयोग लागत को प्रभावित करता है, क्योंकि समग्र रूप से शीतलन भारों में कमी आती है व दिवाप्रकाश के लिए किए गए प्रयासों के बीच इलेक्ट्रिक प्रकाश भार को कम करने के लिए प्रभावी दिवाप्रकाश प्राकृतिक का उपयोग किया जाता है।
खिड़कियाँ दिवाप्रकाश, दृश्यता तथा संवातन के लिए उपलब्ध कराई जाती है। उनका प्रतिशत क्षेत्र, फर्श क्षेत्र का 15 से 40 प्रतिशत तक होता है। खिड़कियों को इस प्रकार लगाना चाहिए, ताकि कमरे में प्रकाश का एक समान प्रसार हो। सिल स्तर 800 से 1200 मिमी और खिड़की की ऊँचाई 1200 मिमी या अधिक होनी चाहिए क्योंकि ऊँची खिड़की से कमरे में अधिकतम प्रकाश अन्दर आता है। विद्युत प्रकाश व्यवस्था के स्थान पर दिवाप्रकाश का उपयोग प्रकाश व शीतलन ऊर्जा पर आंतरिक भार तथा विद्युत लागत में बचत करता है। उच्च दृश्य सम्प्रेषण (VT) जितना अधिक होगा, उतनी अधिक ऊर्जा को बचाया जा सकता है। भवन का मूल आकार, भवन में प्रयुक्त की जाने वाली समग्र ऊर्जा के उपयोग पर एक मौलिक प्रभाव डालता है, जो भवन गोलाकार, वर्गाकार या आयताकार होते हैं, कॉम्पैक्ट भवन संरचनाओं में आते हैं। H, L और U आकार की या आसन्न भवन सतहों के सापेक्ष नब्बे डिग्री के अलावा अन्य कोणों पर उभरे क्षेत्रों एवं सतहों वाली भवन निर्माण योजना में उथले फर्श तल होते हैं जहाँ पार्श्व प्रकाश नीति के परिणामस्वरूप उच्चतम दिवाप्रकाश से प्रकाशित फ्लोर एरिया मिलता है। कम कॉम्पैक्ट भवन संरचना, दिवाप्रकाश में वृद्धि की संभावना को बढ़ाती है, लेकिन वे बाहरी जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रभाव को प्रभावित कर सकती है। अधिकतम सतह से मात्रा अनुपात, भवन एनवेलप के माध्यम से प्रवाहकीय और संवहन गर्मी हस्तांतरण में वृद्धि करता है। भवन के आकार को इस प्रकार अभिकल्प करने की आवश्यकता है, ताकि सौर शरण की समुचित ढंग से व्यवस्था की जा सके। इसके अतिरिक्त, एक भवन का आकार निर्धारित करता है कि हवा आउटडोर सतहों पर किस प्रकार प्राकृतिक संवातन में प्रभाव डालती है या बाहरी सूक्ष्म जलवायु बनाने में मदद करती है।
ऐसे भवन स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्रियों और सेवाओं के उपयोग के कारण दीर्घकालिक मूल्यवत्ता वाले सिद्ध होते हैं। इनके निर्माण में स्थानीय के प्रति विशेष झुकाव रखने के कारण उनके निर्माण मूल्य और आयातित ऊर्जा की लागत दोनों में बहुत कमी आ जाती है। दीर्घकालिक विकास के लिए न्यूनतम ऊर्जा खपत वाले भवनों का निर्माण कई दृष्टि से उपयोगी है। एक ओर जहाँ ये भवन हमारे पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत लाभदायक है, वहीं दूसरी ओर ये आरामदायक होने के साथ-साथ स्वास्थ्यप्रद भी हैं। पर्यावरण अनुकूल भवन हेतु आवासीय सुविधा, मूल्य और ऊर्जा का कार्यक्षम उपयोग पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। नवीनता के प्रति एक स्वाभाविक उत्साह तो मानवीय सामान्य वृत्ति है किन्तु उसे स्वीकृति देकर अपनाने में जन सामान्य को बहुत समय लगता है।
इस प्रकार सार रूप में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में अत्यधिक कार्बन डाई ऑक्साइड एवं अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण वैश्विक तापन और आने वाले समय में ऊर्जा उपलब्धता में कमी की दो बड़ी चुनौतियाँ हैं, इनसे निपटने हेतु वैज्ञानिकों एवं अभियंताओं द्वारा सुझाया गया एकमात्र कारगर उपाय है- दीर्घकालिक संपोषित विकास। ऐसे दीर्घकालिक विकास की गति त्रिविमीय होगी तथा इसे सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय तीनों पक्षों के लिए सुसंगत होना होगा। अतः नये भवनों के निर्माण और पहले से भवनों के पुनरुद्धार में इन तीनों महत्वपूर्ण पक्षों पर विशेष बल देना होगा।


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