विज्ञान


अरबों वर्ष पुरानी है पृथ्वी

डॉ.विजय कुमार उपाध्याय

हमारे पौराणिक ग्रंथों में पृथ्वी की आयु दो अरब वर्ष से साढ़े चार अरब वर्ष के बीच बतायी गयी है। इस अनुमान का आधार क्या था यह तो पता नहीं है, परन्तु पृथ्वी की आयु के बारे में उपर्युक्त अनुमान आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा अनुमानित आयु के बहुत निकट है। अथर्ववेद के भाग ८, अध्याय १, ऋचा २१ में पृथ्वी की आयु चार अरब ३२ करोड़ वर्ष बतायी गयी हैं विष्णु पुराण के अध्याय, १,  श्लोक ३ के अनुसार वर्तमान काल वर्तमान कल्प के सातवें मनवन्तर के २८ वें महायुग का कलियुग है। इस कथन के अनुसार पृथ्वी की आयु का मान एक अरब ९७ करोड़ वर्ष से अधिक आता है। आर्यभट्ट द्वारा लिखित ‘सूर्य सिद्धान्त’ में बताया गया हैं कि पृथ्वी की आयु का मान एक अरब ९७ करोड़ २७ लाख वर्ष से अधिक है। यूरोपीय धार्मिक विचारकों द्वारा पृथ्वी की आयु के संबंध में जो मान बताये गये हैं, वे बहुत ही कम है। बाइबिल के ओल्डटेटामेंट के आधार पर सन् १६५४ में आयरलैंड के आर्कबिषौप अषर ने बताया कि पृृथ्वी की उत्पत्ति ४००४ वर्ष ईसा पूर्व में हुई थी। इसी प्रकार बाइबिल के मर्मज्ञ डॉ। जॉन लाइटफुट ने बताया कि पृृथ्वी की सृष्टि ४००४ वर्ष ईसा पूर्व २६ अक्टूबर की सुबह नौ बजे हुई। जैसे-जैसे  विज्ञान का विकास होता गया, पृथ्वी की आयु का प्रष्न भी गहन चिन्तन एवं शोध का विषय बनता गया। सन् १९६२ में लॉर्ड केल्विन ने कल्पना की कि आरम्भ में पृथ्वी द्रव अवस्था में थी तथा इसका तापमान लगभग २५०० डिग्री सेल्सियस था। पृथ्वी की गतिषीलता के कारण इसके ताप का विकिरण होता गया तथा पृथ्वी ठंडी होकर द्रव अवस्था से ठोस अवस्था में परिणत हो गयी। इस संकुचन सिद्धान्त के आधार पर लॉर्ड केल्विन ने अनुमान लगाया कि पृथ्वी की उत्पत्ति आज से लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी। वैज्ञानिक परीक्षणों के दौरान अनेक भूवैज्ञानिकों ने घाटियों की कटान, हिमनदों के आगे बढ़ने तथा पीछे हटने, एवं समुद्री किनारों के जल द्वारा कटने-छटने जैसी प्राकृतिक क्रियाओं पर गौर करते हुए अनुमान लगाया कि पृृथ्वी पर इन कार्यों के संपन्न होने में काफी अधिक समय लगता है। इस दृष्टिकोण से लॉर्ड केल्विन द्वारा पृथ्वी की आयु के संबंध में लगाया गया अनुमान बहुत ही अपर्याप्त है। पृथ्वी की आयु अवष्य ही इससे बहुत अधिक होनी चाहिए। परन्तु इस कथन की पुष्टि के लिये संतोषप्रद प्रमाण प्रस्तुत करने की आवष्यकता थी।
अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी में पृथ्वी की कुल विषेषताओं के अध्ययन तथा उनके मूल्यांकन के लिये कुछ कदम उठाये गये जिनके आधार पर पृृथ्वी की आयु की गणना की जा सकती थी। इस दिषा में महत्वपूर्ण प्रकाष डालने में सक्षम कुछ प्राकृतिक घटक निम्नलिखित थे :- (१) समुद्री जल की लवणता (२) पृृथ्वी के भीतर का ताप, तथा (३) विभिन्न प्रकार की द्रोणियों में अवसादन की दर। हालांकि इन घटकों के आधार पर पृथ्वी की आयु की गणना की विधि बहुत सरल थी, परन्तु उनसे पृृथ्वी की आयु के संबंध में प्राप्त आँकड़ों में एकरूपता नहीं थी। यही कारण था कि उपर्युक्त विधियाँ विष्वसनीय नहीं मानी गयीं। इन विधियों द्वारा आयु की गणना करने में कई त्रुटियां रह जाती थीं। उदाहरण के लिये यह संभव है कि समुद्री जल की लवणता शुरू से उतनी ही रही हो जितनी कि आज है। यदि हम यह मान भी लें कि समुद्री जल की लवणता समय के साथ बढ़ती गयी तो फिर एक समस्या और खड़ी  होती है। पृथ्वी के स्थलीय भागों में आज अनेक स्थानों पर नमक के पहाड़ दिखायी पड़ते हैं जो समुद्रों से निर्मित माने जाते है। अर्थात समुद्रों ने पृथ्वी से प्राप्त लवणों की भारी मात्रा पृथ्वी के स्थलीय भागों को नमक के पहाड़ों के रूप में लौटा दी। अतः समुद्रों की लवणता की गणना करते समय उपर्युक्त पहाड़ों में मौजूद लवण की मात्रा का भी हिसाब रखना पड़ेगा। यह काफी कठिन काम है। पृथ्वी के आन्तरिक ताप के आधार पर भी पृथ्वी की आयु की गणना करने में एक कठिनाई है। भूगर्भ में कुछ रेडियोधर्मी तत्व मौजूद हैं। इन तत्वों के विखंडन से ताप उत्पन्न होता है जिसके कारण पृथ्वी के आन्तरिक ताप की गणना करने में कठिनाई बढ़ जाती है। द्रोणियों (बेसिन) में अवसाद (सेडिमेंट) संग्रह के आधार पर भी पृथ्वी की आयु की गणना करने में कठिनाई है। उदाहरणार्थ समुद्र में चूना पत्थर (लाइम स्टोन) की १० सेंटीमीटर मोटी परत जमा होने में हजारों वर्ष लगते हैं। जबकि उतनी ही मोटाई की बलुआ पत्थर (सैंडस्टोन) की परत नदी की द्रोणी में सिर्फ चंद घंटों में ही जमा हो जाती है।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में की गयी एक खोज के फलस्वरूप पृृथ्वी की आयु के निर्धारण की समस्या अचानक ही सुलझ गयी। सन् १८६९ में रेंटोनी बेकेरल नामक एक फ्रांसीसी भौतिकीविद ने पता लगाया कि कुछ खनिजों में मौजूद घटक एक प्रकार की अदृष्य किरणों को उत्पन्न करते हैं। ये किरणें फोटोग्राफिक प्लेट को प्रभावित करती हैं तथा उन पदार्थों से भी होकर गुजर सकती हैं जो प्रकाष किरणों के लिये अपारदर्षक है। अदृष्य किरणों को उत्पन्न करने वाले ऐसे तत्वों को रेडियोधर्मी कहा गया। शीघ्र ही यह बात प्रकाष में आयी कि रेडियोधर्मी तत्वों के नाभिक धीरे-धीरे विखंडित होते रहते हैं। विखंडन के फलस्वरूप नये तत्वों का निर्माण होता है। सभी रेडियोधर्मी तत्व वस्तुतः एक प्रकार के समय सूचक यंत्र हैं क्योंकि ये सभी तत्व किसी अन्य तत्व में एक निष्चित दर से परिवर्तित होते हैं। परिवर्तन की दर को अर्द्धजीवन काल की इकाई में मापा जाता हैं ऐसे तत्वों का अर्द्धजीवनकाल एक सेकंड के लाख वें भाग से कई करोड़ वर्षों तक हो सकता है।
अब प्रष्न उठता है कि अर्द्धजीवन काल क्या है? रेडियोधर्मी तत्व जैसे ही निर्मित होते हैं, उनका विखंडन प्रारंभ हो जाता है। कई तत्व तो बहुत जल्द ही विखंडित हो जाते हैं, परन्तु कुछ तत्व करोड़ों वर्षों तक विखंडित होते रहते हैं। चूंकि किसी भी तत्व का पूर्ण जीवनकाल अनिष्चित रूप से लम्बा होता है, अतः अधिकांष तत्वों के पूर्ण जीवनकाल का अनुमान लगाना कठिन है। इसकी अपेक्षा रेडियोधर्मी तत्वों के उस काल का पता लगाना आसान है जिसमें उनका आधा भाग विखंडित होता है। उस काल को उस तत्व का अर्द्धजीवन काल कहा जाता है। किसी भी रेडियोधर्मी तत्व के पूर्ण जीवनकाल का पता लगाना इस कारण से कठिन है, क्योंकि प्रारंभ में विखंडन की दर बहुत तीव्र रहती है। परन्तु धीरे-धीरे यह दर कम होती जाती है। अंत में विखंडन दर इतनी कम हो जाती है कि पता भी नहीं चलता कि विखंडन हो भी रहा है या नहीं। इन किइनाईयों को देखते हुए अर्द्धजीवन काल का ही महत्व है न कि पूर्ण जीवन काल का। रेडियोधर्मी तत्वों के कुछ मौलिक गुण भूवैज्ञानिक अध्ययन हेतु वरदान साबित हुए हैं। सर्वप्रमुख गुण तो यह है कि विखंडन की दर-पार्थिव परिस्थितियों से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होती। पृथ्वी के भीतर तापमान या दाब के बढ़ने या घटने से विंखडन दर प्रभावित नहीं होता। दूसरा प्रमुख गुण यह है कि रेडियोधर्मी तत्व ताप उत्पन्न करते हैं। यह ऊर्जा पृृथ्वी में कई प्रकार की हलचलों को उत्पन्न करती है, जैसे ज्वालामुखी, भूकंप, इत्यादि। रेडियोधर्मी तत्वों के इन गुणों के कारण इनका उपयोग पृथ्वी तथा उसके विभिन्न घटकों (जैसे खनिज, शैल, जीवाष्म इत्यादि) की आयु में निर्धारण हेतु किया जाता है।
रेडियोधर्मी तत्वों द्वारा काल-निर्धारण कई बातों पर निर्भर करता है जिनमें प्रमुख है मूल पदार्थ, विखंडन से उत्पन्न पदार्थ, तथा इन दोनों का अनुपात। यदि परिवर्तन की दर मालूम हो तो किसी रेडियोधर्मी तत्व के परिवर्तित तथा अपरिवर्तित अंष को माप कर हम कह सकते हैं कि यह प्रक्रिया दाब से चल रही है। परन्तु इसके लिये यह आवष्यक है कि उस पदार्थ से न तो कुछ हटाया गया हो और न बाहर से कुछ मिलाया गया हो। उदाहरणार्थ कुछ रेडियोधर्मी तत्वों के विखंडन से उत्पन्न पदार्थ गैसीय अवस्था में रहते हैं। ये गैसीय पदार्थ छिद्र या दरार मिलने पर निकल कर भाग सकते हैं। इस कारणवष आयु निर्धारण में अषुद्धि की संभावना रहती है। अतः यह सावधानी रखनी पड़ती है कि पत्थर का जो नमूना लिया जाए वह अपक्षय (वेदरिंग)  से पूर्णतः अप्रभावित रहे तथा छिद्र एवं दरार से रहित हो।
रेडियोधर्मी तत्वों में सर्वप्रमुख है यूरेनियम। इसी कारण से इसके विखंडन एवं परिवर्तन के अध्ययनों पर अधिक ध्यान दिया गया है। यह रेडियम का जनक है तथा परमाणु बम के निर्माण में इसका सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। प्रकृति में इसके दो समस्थानिक पाये जाते हैं। जिनके नाम हैं यूरेनियम-२३५ तथा यूरेनियम-२३८। ये दोनों समस्थानिक प्रकृति में एक साथ पाये जाते है। परन्तु यूरेनियम २३५ की तुलना में यूरेनियम-२३८ एक सौ चालीस गुना अधिक उपलब्ध है। यूरेनियम के साथ थोरियम भी प्रकृति में पाया जाता है। परन्तु इसका एक ही समस्थानिक थोरियम-२३२ उपलब्ध हैं ये तीनों समस्थानिक परिवर्तन की एक क्रमबद्ध श्रेणी से गुजरते हुए लेड में परिवर्तित हो जाते हैंं यूरेनियम -२३५ विखंडित होकर लेड-२०७ में बदल जाता है तथा इसका अर्द्धजीवन काल लगभग ७१ण्३ करोड़ वर्ष का है। यूरेनियम -२३८ विखंडित होकर लेड-२०६ में बदल जाता है। इसका अर्द्धजीवन काल लगभग साढ़े चार अरब वर्ष का है। योरियम -२३२ परिवर्तित होकर लेड-२०८ बनाता है तथा इसका अर्द्धजीवन काल १३ण्९ अरब वर्ष का है।
उपर्युक्त सभी परिवर्तनों में हीलियम उप उत्पाद (बाईप्रोडक्ट) के रूप में उत्पन्न होता है। इस विधि में मान लिया जाता है कि प्रारंभ में लेड की मात्रा अनुपस्थित थी। प्रारंभ में कितना लेड उपस्थित था इसका संकेत लेड के एक समथानिक लेड-२०४ की उपस्थिति से मिलता, क्योंकि लेड-२०४ रेडियो धर्मिता के कारण उत्पन्न नहीं होता। काल-निर्धारण के लिये प्रायः जिरकन नामक खनिज का उपयोग किया जाता है। क्योंकि जिरकन में प्रायः थोड़ा यूरेनियम उपस्थित रहता है। यह यूरेनियम जिरकन के क्रिस्टल में प्रवेष कर जाता है तथा यूरेनियम के विखंडन के कारण उत्पन्न लेड जिरकन के रवों में फँसा रहता हैं दूसरी ओर साधारण लेड (लेड-२०४)  जिरकन के रवों में प्रवेष नहीं कर सकता क्योंकि इसका आकार बड़ा है।
अब एक महत्वपूर्ण  प्रष्न यह उठता है कि रेडियो धर्मी पदार्थों के उपयोग द्वारा पृृथ्वी की आयु कैसे निर्धारित की जाए? ऐसा माना जाता है कि उल्काओं का निर्माण उसी काल में हुआ जिस काल में पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। अतः उल्काओं के लिये निर्धारित आयु के मान से पृथ्वी की आयु के संबंध में उपयोगी सूत्र हाथ लग सकते हैं। अधिकांष उल्काओं से प्राप्त नमूनों में उपलब्ध रेडियोधर्मी तत्वों के विष्लेषण से पता चलता है कि उल्काओं का निर्माण लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुआ। चन्द्रमा से प्राप्त चट्टान के नमूनों के विष्लेषण से भी यही पता चलता है कि चन्द्रमा का निर्माण आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुआ। चूंकि चन्द्रमा को पृृथ्वी से ही उत्पन्न माना जाता है अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति भी अवष्य ही साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुई होगी। पृथ्वी पर उपलब्ध हजारों चट्टानों के विष्लेषण से भी यही निष्कर्ष निकलता है।

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