तकनीकी


अलविदा! डॉ. अब्दुल कलाम

देवेन्द्र मेवाड़ी

आदरणीय डॉ. कलाम!
आपके बारे में इतना कुछ सुनता, पढ़ता रहता था कि बहुत मन करता था कभी आपसे मिलूं, बातें करूं, अपनी जिज्ञासाएं बताऊं। मिल न सकूं तो कम से कम पत्र तो जरूर भेजूं। एक संक्षिप्त भेंट का मौका 13 मार्च 2012 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग के मंच पर मिला था, जब आपने मेरी पुस्तक ‘मेरी विज्ञान डायरी’ का लोकार्पण किया था। मेरी उस पुस्तक पर किए गए आपके हस्ताक्षर मेरी अमूल्य निधि हैं। आपसे मिल कर बात करने के बारे में सोचता ही रहा डॉ. कलाम कि आप अचानक चले गए, किंवदंती बन कर। 
हां, किंवदंती बन कर, जो आज के हालात में कतई आसान नहीं था। आप क्या गए कि देष भर में बच्चों, विद्यार्थियों से लेकर वैज्ञानिकों और आम आदमी तक को सहसा विष्वास ही नहीं हुआ कि हमें बड़े स्वप्न देखने के लिए प्रेरित करने वाला स्वप्नदृष्टा और सरलतम जीवन जीने वाला सरल हृदय कर्मयोगी चला गया है। सर, आप कहते थे कि आपको बहुत अच्छा लगेगा, अगर आपके जाने के बाद लोग आपको एक षिक्षक के रूप में याद रखें। वही हुआ। आप जाते-जाते भी भारतीय प्रबंधन संस्थान, षिलांग के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। आपकी वह छवि हम सबके मन में अंकित हो गई है और हम आपको सदैव एक प्रिय षिक्षक के रूप में याद रखेंगे।   
अब सोच-सोच कर ताज्जुब होता है सर कि आप एक में अनेक थे- बहुआयामी व्यंिक्तत्व था आपका। आप इंजीनियर और वैज्ञानिक थे, सफल लेखक और चिंतक थे, षिक्षक थे, संगीत प्रेमी थे और राजनीति को दिषा दिखाने के लिए आप आम लोगों के राष्ट्रपति की भूमिका भी निभा गए। सच, आप ऐसा कर गए कि आपका जीवन ही नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा बन गया। आप बड़े स्वप्न संजोने की बात करते थे। बताइए, इससे बड़ा और क्या स्वप्न और प्रेरणा हो सकती है, सामान्य घर-परिवार के उन लाखों-लाख बच्चों के लिए कि रामेष्वरम के एक सामान्य मछुवारे के घर में पैदा हुआ बच्चा भी रेलवे स्टेषन और बस अड्डे पर सुबह अखबार बेच कर पढ़ाई करके देष का एक नामी वैज्ञानिक और राष्ट्रªपति तक बन सकता है? इतना ही नहीं, बेहद सादगी भरा जीवन जीने वाले उस बच्चे को बड़ा होकर देष का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ मिल सकता है? 
सर, इसीलिए तो आज लोग कह रहे हैं कि आप सादा जीवन, उच्च विचार की मिसाल पेष कर गए। आपको एक बात बताता हूं। नब्बे के दषक में एक बार हैदराबाद से इंजीनियर अरुण तिवारी मिलने आए थे तो मैंने उनसे पूछा था, ‘रह कहां रहे हैं?’ 
वे बोले, ‘खेल गांव के अतिथिगृह में। डॉ. अब्दुल कलाम के साथ।’ 
मैं चौंक गया था सर। मैंने फिर पूछा था, ‘अरे, वे किसी बड़े होटल में नहीं रुके?’ 
तब उन्होंने बताया, ‘नहीं, वे तो बहुत ही सरल आदमी हैं। उनके पास एक बैग है और उसमें एक जोड़ी कपड़े, बस। मैंने उनके साथ उनकी जीवनी लिखी है, ‘विंग्स ऑफ फायर।’ बाद में आप राष्ट्रªपति बने तो पता लगा वही बैग लेकर आप राष्ट्रªपति भवन में गए और कार्यकाल पूरा होने के बाद वही एकमात्र बैग लेकर राष्ट्रªपति भवन से बाहर आ गए! सुना है, वहां आप बस एक कमरे में ही रहते थे। और हां, आपसे जब षपथ लेने के लिए षुभ घड़ी के बारे में पूछा गया था तो आपने कहा था, ‘मेरे लिए साल का हर दिन, हर पल षुभ है। मैं किसी भी दिन, किसी भी समय षपथ ले सकता हूं।’ हमें गर्व होता है कि हमारे समय में, हमारे बीच आप जैसा व्यक्ति पैदा हुआ जिसने राष्ट्रªपति की भी परिभाषा बदल दी। अपने बालों से कितना प्यार था आपको! आप जब राष्ट्रªपति बने तो सभी लोग सोचते थे कि अब आपके बालों का क्या होगा? लेकिन, आपने उन्हें उसी प्यार के साथ रखा। वे आपकी सादगी का हिस्सा बन गए। आपको याद होगा, एक बार पांचवी कक्षा के एक बच्चे ने आपसे पूछ लिया था, ‘आपने ऐसे बाल क्यों रखे हैं?’ तो आपने हँस कर उससे पूछा था, ‘क्यों क्या मुझ पर सूट नहीं कर रहे हैं?’ और, कपड़े तो आप एकाध जोड़ी ही रखते थे वे भी अपने ही दर्जी से सिलवाते थे। राष्ट्रªपति भवन जाने पर राष्ट्रªपति भवन के नहीं, अपने ही दर्जी से आपने चार बंद गले के कोट सिलवाए। लोगों ने उन्हें ‘कलाम कट’ कोट कहा। 
आपने आम आदमियों और नए आविष्कारकों के लिए भी राष्ट्रªपति भवन के द्वार खोल दिए। तब से हर साल देष के कोने-कोने से अपने नए और नायाब आविष्कार लेकर प्रतिभाषाली आविष्कारक राष्ट्रªपति भवन में अपने सस्ते, स्वदेषी आविष्कारों की प्रदर्षनी लगा रहे हैं। आप जैसा और कौन होगा सर, जिससे मिलने राष्ट्रªपति भवन में रिष्तेदार आएं और वह उनके रहने, खाने का खर्च अपनी जेब से दे दे। मुझे पता है, मई 2006 में राष्ट्रªपति भवन में आपसे मिलने आपके 52 रिष्तेदार आए थे। उनमें आपके उम्रदराज बड़े भाई साहब के साथ ही डेढ़ साल की नन्ही पड़पोती भी थी। वे आठ दिन राष्ट्रªपति भवन में रुके और जब गए तो आपने अपने व्यक्तिगत खाते से 3ए52ए000 रूपए का भुगतान किया। आपने तो इफ्तार की दावत का खर्च भी बचा कर वह पैसा अनाथालयों को भिजवा दिया था। खुद भी एक लाख रूपया उन्हें दिया। आपने उन बच्चों का दर्द समझा, हमें गर्व है आप पर। और, तभी तो बच्चे भी याद कर रहे हैं आपको तहे-दिल से। आपके जाने की खबर सुन कर, जानते हैं ‘चेतना बाल सुरक्षा गृह’ के बच्चों ने क्या कहा? पंद्रह वर्ष के कचरा बीनने वाले आसिफ ने कहा, ‘‘मैंने पढ़ा है, बचपन में परिवार का खर्च चलाने के लिए उन्होंने भी मेरी तरह काम किया था। अखबार बेचे उन्होंने।’’ असलम बोला, ‘‘मैंने तो अपने षिक्षक जी से डांस सीखा कि एक दिन दिखाऊंगा उन्हें अपना डांस।’’ सर, आप बच्चों के दिल में तक बैठ गए। तभी तो देष के हजारों स्कूलों के लाखों बच्चों ने भी भीगी आंखों से आपकी स्मृति को नमन किया। 
आपको तो याद भी नहीं होगा आपने अखिल का जीवन संवार दिया। अखिल, मेरा मतलब है वही अखिल गुप्ता जो आज कहीं गुजरात में भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स में वरिष्ठ इंजीनियर है। सी.बी.एस.ई. की परीक्षा में उस मेधावी बच्चे के गणित, रसायन विज्ञान और कम्प्यूटर विज्ञान में 97 प्रतिषत अंक थे जबकि फिजिक्स में उसे फेल कर दिया गया। जांच करवाई तो कह दिया गया अंक ठीक दिए गए हैं। तब अखिल ने आपको एक पत्र भेजा था कि उसके साथ अन्याय किया गया है। आप तब राष्ट्रªपति थे। आपको अखिल का पत्र पढ़ कर दुख हुआ। आपने मानव संसाधन मंत्रालय से जांच करवाई तो पता लगा अंकों की गिनती में गलती की गई थी। फिजिक्स में 70 में से 55 अंक थे। अखिल पास हो गया और बिरला इंस्टिट्यूट ऑफ पिलानी से बी. टैक. करके मैकेनिकल इंजीनियर बन गया। सर, इंजीनियर से याद आया, आपने भी तो अपने कॅरियर की षुरुआत इंजीनियर के ही रूप में की थी। मद्रास इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरी की डिग्री लेकर 1962 में आप भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में इंजीनियर हो गए थे। 2013 में मैं वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास लक्ष्मण की पुस्तक ‘मार्स बिकॉन्स इंडिया’ का हिंदी अनुवाद कर रहा था तो मैंने उसमें आपसे जुड़ा एक रोचक प्रसंग पढ़ा। जब अंतरिक्ष विभाग ने केरल के एक सागरतटीय गांव थुंबा को वहां के मछुवारों की षुभकामनाओं के साथ अपना लिया तो अंतरिक्ष वैज्ञानिक और इंजीनियर वहां के चर्च और बिषप के मकान में काम करने लगे। आप भी उनमें थे। बिषप का कमरा आपका ऑफिस बन गया था! आप लोगों ने वहां से 21 नवंबर 1963 को नासा से प्राप्त प्रथम साउंडिंग रॉकेट नाइकी अपाचे छोड़ा था। देष यह कैसे भूल सकता है सर कि उस दिन हमारे देष में राकेट छोड़ने का षुभारंभ हो गया था। बाद में इस बारे में एक और रोचक बात का पता लगा था जो आपको जरूर याद होगी। प्रथम साउंडिंग राकेट छोड़ने की 40 वीं वर्षगांठ पर जब आप 2006 में राष्ट्रªपति भवन में लोगों को संबोधित कर रहे थे तो आपने अपना भाषण इस तरह षुरू किया था- ‘दस, नौ, आठ, सात.....!’ यह सुन कर इसरो के वैज्ञानिकों के हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गए थे।  
हमें विष्वास है, थुंबा में ही आपने देष में ही राकेट बनाने का सपना देखा होगा। आपके नेतृत्व में तभी तो सैटेलाइट लांच व्हिकल यानी एसएलवी-3 जैसे राकेट का निर्माण करके 1980 में रोहिणी उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया गया। और, आगे चल कर आपके ही मार्गदर्षन में लक्ष्य वेधी अग्नि, पृथ्वी, आकाष, त्रिषूल, नाग और ब्रह्मोस जैसी नायाब और षक्तिषाली मिसाइलें बना ली गईं जिन्होंने देष को सामरिक षक्ति प्रदान की है। 
षक्ति की धमक तो पूरी दुनिया ने तब भी सुनी थी सर, जब पोखरण में ‘बुद्ध मुस्कराए’ थे! हमें याद है, 1998 में जब आप रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) के सचिव थे तो आपने 11 मई को पोखरण में किए गए भारत के दूसरे भूमिगत परमाणु परीक्षण में अहम भूमिका निभाई थी। विस्फोट हो जाने तक दुनिया के किसी भी देष को उसकी कानों-कान खबर नहीं हुई थी। तब आप स्वयं भी वहां मौजूद थे। आपके बारे में हमें यह भी पता है कि घातक मिसाइलें बनाने वाले ‘मिसाइल मैन’ ने हृदय रोगियों और पोलियो पीड़ितों की मदद के लिए भी काम किया। आपने निज़ाम अस्पताल, हैदराबाद के जाने-माने हृदयरोग विज्ञानी डॉ.बी.सोमा राजू को धमनियों में खून जमने की समस्या से निज़ात दिलाने के लिए सस्ता और स्वदेषी स्टिंट बनाने की प्रेरणा दी। इसके लिए सर्वोत्तम कोटि का स्टील इस्तेमाल किया गया। और, इस तरह ‘कलाम-राजू स्टिंट’ तैयार हो गया। कीमत सिर्फ रू. 10ए000 जबकि विदेषों से मंगाए जा रहे स्टिंट की कीमत 75ए000 थी। जब आप अग्नि और पृथ्वी मिसाइलों के विकास में जुटे थे, तब आपने पोलियो पीड़ितों के लिए बहुत हलके, मात्र 400 ग्राम भारी कैलिपर्स बनवाए। प्रचलित कैलिपर्स का भार 4 किलोग्राम था।  आप सदैव बटोरने के बजाय देने की सलाह देेते रहे। यहां मुझे आपकी कविता ‘खिल उठे देने के लिए’ की पंक्तियां याद आ रही हैंः
‘मानव जीवन क्या देता है एक-दूसरे को?’
मैं उलझन में पड़ गया, कई दिषाओं में भटका मस्तिष्क,
कहा मैंने, ‘ओ मेरे प्यारे नन्हे पुष्प,
तुम्हारा जीवन है सचमुच प्रेरक मानवता के लिए 
एक नष्वर प्राणी के लिए, देने से बड़ा कोई सुख नहीं।’
आपका सर्व धर्म समभाव का स्वभाव भी हमें एक नया सोच दे गया। इसकी षुरुआत तो सर, षायद तभी हो गई होगी जब बचपन में आप देखते थे कि रामेष्वरम मंदिर का मुख्य पुजारी, स्थानीय चर्च के पादरी महोदय और मस्जिद के इमाम यानी आपके पिता षाम को एक साथ बैठ कर चाय पीते और समाज की समस्याओं पर बातें करते। विज्ञान के क्षेत्र में सुना है, आप अपने गुरू प्रसिद्ध अंतरिक्ष विज्ञानी सतीष धवन और विक्रम साराभाई को बहुत याद किया करते थे। बाद में आध्यात्म में भी आपकी काफी रुचि हो गई थी। सर हमें पता है, आप स्वामीनारायण संप्रदाय के गुरू प्रमुख स्वामी को बहुत मानते थे। आपकी आखिरी पुस्तक ‘टाªªंसेंडेंस-माइ स्प्रिचुअल एक्सपीरिऐंस’ में आपने अपने जीवन के आध्यात्मिक अनुभवों को संजोया है। 
वैसे हैरानी होती है कि इतनी व्यस्तता के बावजूद आप पुस्तकें लिखने का समय कैसे निकाल लेते थे, हालांकि हमें पता है, आप कर्मयोगी थे और अहर्निष काम में व्यस्त रहते थे। हमें पता है सर, आप तो मां के निधन के दूसरे ही दिन अपने आफिस में काम पर लौट आए थे। उसी मां के बारे में आपने अपनी कविता में लिखा थाः 
आपके सहलाते हाथों, ने कोमलता से हर ली थी मेरी पीड़ा
आपके प्यार, आपके दुलार, आपके भरोसे ने दी मुझे ताकत,
बिना भय और ‘उसकी’ शक्ति के साथ 
दुनिया का सामना करने की। 
हम फिर मिलेंगे क़यामत के दिन। मेरी मां! 
आपकी किताबें तो बेस्ट सैलर ही रहीं। उनके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुए। पैंगुइन ने आपकी जो पुस्तक ‘माइ जर्नी’ छापी थी, अब तक उसकी 10 लाख से भी अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं! यह तो एक कीर्तिमान है सर। सच मानिए, आपको न कभी बच्चे भूलेंगे, न बड़े क्योंकि आपकी तरह का इंसान बिरला ही पैदा होता है। आप बच्चों की किताबों में मौजूद हैं। इसलिए बच्चों की आने वाली पीढ़ियां भी आपको सदा याद रखेंगी। अब आप ही सोचिए, क्या तंज़ाबूर की शास्त्रा यूनिवर्सिटी के वे बच्चे आपको भूल पाएंगे, जिनके पास आप सुबह 9 बजे गए थे और आधी रात तक उन्हीं के साथ रहे? आपने उनसे बातें करते-करते उनकी नैनो टैक्नोलॉजी की तथा दूसरी प्रयोगषालाएं भी देखी थीं। और, देष भर के वे लाखों बच्चे, जिनके साथ आपने बातें कीं, वे युवा जिन्हें आपने देष सेवा का संकल्प कराया और बड़े सपने देख कर उन्हें पूरा करने का संदेष दिया, क्या वे भूल पाएंगे?
वह गार्ड भी नहीं भूल पाएगा आपको, जो षिलांग जाते समय गाड़ी में आपकी सुरक्षा में लगातार मुस्तैदी से खड़ा रहा था। आप अपने सहयोगी से उससे बार-बार बैठ जाने के लिए कहलवाते थे, लेकिन वह बैठा नहीं। षिलांग पहुंच कर आपने कहा तो वह गद्गद् होकर बोला था, ‘आपने मेरे बारे में सोचा, मेरे लिए यही बड़ी बात है। आप जैसे व्यक्ति के लिए मैं दिन भर खड़ा रह सकता हूं।’ पंजाब में सींचेवाल गांव के निवासी भी आपको भला कभी भूल सकते हैं? आपने 2006 और 2008 में उनका उत्साह बढ़ाते हुए कहा था कि जनसहयोग से तो असंभव भी संभव हो जाता है। उन्होंने एक-जुट होकर मैली, प्रदूषित काली बीण नदी को साफ बना दिया था। इसी नदी के किनारे कभी गुरू नानक को ज्ञान प्राप्त हुआ था। भूलेंगी तो चमोली, उत्तराखंड की वे ग्रामीण महिलाएं और पुरूष भी नहीं जिन्होंने 30 जुलाई को प्रसिद्ध पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट की अगुवाई में वहां आपकी स्मृति में ‘कलाम वन’ की षुरूआत के लिए वृक्षारोपण किया। 
सर 1 जनवरी 2011 को ‘अमर उजाला’ अखबार में छपी आपके लेख की वे पंक्तियां हमें सदा याद रहेंगी जिनमें आपने हमारे देष के महान राष्ट्र बनने का सपना देखा थाः 
‘आकाषगंगा के मेरे मित्रों, मैं सूर्य हूं/मेरी परिधि में आठ ग्रह लगा रहे हैं चक्कर/उनमें से एक है पृथ्वी/जिसमें रहते हैं छह अरब मनुष्य/सैकड़ों देषों में/इन्हीं में एक है महान सभ्यता/भारत 2020 की ओर बढ़ते हुए/मना रहा है एक महान राष्ट्रª के उदय का उत्सव/भारत से आकाषगंगा तक पहुंच रहा है/रोषनी का उत्सव/एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें नहीं होगा प्रदूषण/नहीं होगी गरीबी, होगा समृद्धि का विस्तार/षांति होगी, नहीं होगा युद्ध का कोई भय/यही वह जगह है जहां बरसेंगीं खुषियां....’
आमीन। अलविदा डॉ. अब्दुल कलाम। 

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