तकनीकी


मानव व्यवहार को नियंत्रित करते जैव रसायन

मणि प्रभा

 

वास्तव में हमारा शरीर और मन परस्पर जुड़े हुए हैं। इसलिए तन का प्रभाव मन पर पड़ता है और मन का प्रभाव तन पर पड़ता है। वर्षों के चिकित्सा अनुसंधान ने यह साबित कर दिया है कि मन का एक छोटा-सा विचार भी शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ता है। उदाहरण के लिए जब मन में क्रोध उत्पन्न होता है तो उसका तात्कालिक प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इसी तरह जब मन में करूणा, दया और ममता जागती है, तब भी शरीर पर उसका असर दिखाई पड़ता है। तंत्रिका विज्ञानियों के अनुसार मन जिस स्थिति में होता है, मस्तिष्क द्वारा हार्मोन का स्राव भी उसी के अनुरूप होता है। जैव रसायन विज्ञान के अन्तर्गत जीवित द्रव्य से प्राप्त होने वाले अनेक यौगिकों का यह जानने के लिए अध्ययन किया जाता है कि वे जीवित कोशिकाओं के भीतर सरल यौगिकों से किस प्रकार संश्लेषित होते है और कोशिकाओं के भीतर लाभदायक कार्य करने के पश्चात पुनः सरल यौगिकों में कैसे अपघटित हो जाते हैं।
वास्तव में मस्तिष्क ही शरीर का असली रसायनशास्त्री है। हमारे भाव और पर्यावरण के बोध के आधार पर मस्तिष्क नसों में रसायन छोड़ता है। ये ही रसायन खून में घुल कर पूरे शरीर में घूमते हैं और काशिकाओं और अंगों को संचालित करते हैंं। उदाहरण के लिए, अगर हम आंख खोलते ही किसी प्रियजन को देखते हैं तो मस्तिष्क खून में कुछ खास तरह के हार्मोन छोड़ता है। इनके नाम हैं ‘डोपामाइन’ और ‘ऑक्सिटोसिन’। कुछ ऐसे हॉर्मोन भी होते हैं जो शरीर के विकास को बढ़ाते हैं। इन रसायनों से कोशिकाओं का स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसलिए किसी प्रिय व्यक्ति से मिलने पर चेहरा चमकने, दमकने लगता है। हमें लगता है कि हमें उनका आशीर्वाद मिल गया है।
ठीक इसके विपरीत जब हम किसी अप्रिय व्यक्ति या वस्तु को देखते हैं तब मस्तिष्क तनाव पैदा करने वाले, शरीर में सूजन पैदा करने वाले रसायन छोड़ने लगता है। यह दिमाग का प्रतिरक्षा तंत्र है क्योंकि तनाव में शरीर वह सब कर सकता है जो प्रसन्न रूप में नहीं करता। यह आपातकाल से जूझने का एक तरीका है। लेकिन जब कोई व्यक्ति लगातार अप्रिय वातावरण में रहता है तो मस्तिष्क को लगातार आपातकाल का भास होता रहता है, जिसके जवाब में वह लगातार तनाव के रसायन छोड़ता रहता है। इससे व्यक्ति हमेशा तनावग्रस्त रहता है। ऐसा वातावरण बने रहने से कोशिकाओं की स्वस्थ आदतें जाती रहती हैं। कोशिकाएं मरने लगती हैं। यही कारण है कि ऐसा तनाव मृत्यु का कारण बन जाता है।
इससे पता यह चलता है कि किसी भी जीव के शरीर और मानस के सबसे ऊपर मस्तिष्क है। और इस मस्तिष्क का स्वभाव कैसे तय होता है? बुद्धि में होने वाले विचार से। इसका आशय यह है कि किसी भी व्यक्ति के वंशानुगत स्वभाव को उसकी बुद्धि, उसका विवेक बदल सकता है। इसका मतलब यह है कि हमारे बर्ताव, हमारे कर्म पर हमारा वश है। चाहे दुनिया भर पर न भी हो, लेकिन हमारे अपने स्वभाव को तो हम बदल सकते हैं, अपनी बुद्धि में बारीक परिवर्तन लाकर।
हमारे मस्तिष्क के दो विभिन्न अंश हैं : चेतन और अवचेतन। दोनों ही अलग-अलग प्रयोजनों के लिए जिम्मेदार हैं और दोनों के सीखने के तरीके भी अलग-अलग हैं। मस्तिष्क का चेतन भाग हमें विशिष्ट बनाता है, वही हमारी विशिष्टता है। इसकी वजह से एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अलग होता है। हमारा कुछ अलग-सा स्वभाव, हमारी कुछ अनोखी सृजनात्मक शक्ति- ये सब मस्तिष्क के इसी हिस्से से संचालित होती हैं, तय होती हैं। हर व्यक्ति की चेतन रचनात्मकता ही उसकी मनोकामना, उसकी इच्छा और महत्वाकांक्षा तय करती है।
इसके विपरीत मस्तिष्क का अवचेतन हिस्सा एक ताकतवर प्रतिश्रुति यंत्र जैसा ही है। यह अब तक के रिकॉर्ड किए हुए अनुभव दोहराता रहता है। इसमें रचनात्मकता नहीं होती। यह उन स्वचलित क्रियाओं और उस सहज स्वभाव को नियंत्रित करता है, जो दुहरा-दुहरा कर, हमारी आदत का एक हिस्सा बन चुका है। यह जरूरी नहीं है कि अवचेतन मस्तिष्क की आदतें और प्रतिक्रियाएं हमारी मनोकामनाओं या हमारी पहचान पर आधारित हों। मस्तिष्क का यह हिस्सा अपने सबके जन्म के थोड़े पहले, मां के पेट में ही सीखना शुरू कर देता है। यहाँ से लेकर सात साल की उमर तक वे सारे कर्म और आचरण, जो भावी जीवन के लिए मूल हैं, उन्हें हमारे मस्तिष्क का यह अवचेतन हिस्सा सीख लेता है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सात साल तक अवचेतन अवस्था में सम्मोहन से सीखी हुई बातों का लगभग 70 प्रतिशत नकारात्मक होती हैं। इनमें कई विध्वंसक भी होती हैं और हमारे व्यक्तिगत सामर्थ्य को कमजोर करती हैं। यदि हमारे जीवन और शरीर पर मस्तिष्क का वश चलता है, तो फिर ऐसा क्यों है कि ज्यादातर लोग अपनी अपेक्षाओं के आधार पर अपना जीवन चलाने में असमर्थ होते हैं? इसका कारण यह भुलावा है कि हम अपने जीवन पर नियंत्रण अपने दिमाग के चेतन भाग में रखते हैं। यह सच्चाई के ठीक विपरीत है। मनोविज्ञान और तंत्रिकाविज्ञान यह सिद्ध कर चुके हैं कि हमारे संज्ञान की केवल 1.5 प्रतिशत क्रियाएं हमारे चेतन मस्तिष्क से होती हैं। हमारे आचरण और कर्म में 95.99 प्रतिशत क्रियाएं हमारे अवचेतन मस्तिष्क से चलती हैं। उस हिस्से से जो सम्मोहन से बना है। ऐसा क्यों है? जवाब चेतन मस्तिष्क के स्वभाव में मिलता है। यह हिस्सा सोच सकता है, विचार कर सकता है। जब चेतन हिस्सा विचार में मगन होता है तब उसे तात्कालिक परिस्थितियों का बोध नहीं रहता। जब चेतना किसी बात पर मनन कर रही है, तब शरीर और जीवन चलाने की कमान अवचेतन मस्तिष्क के पास चली जाती है। यह हमारे मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो दूसरों की नकल करने से बना है। सम्मोहन से बना है। चेतन अवस्था में विचार करने वाले मस्तिष्क को उन आदतों का बोध नहीं होता जो दूसरों की नकल से बना है।
अब चूंकि हमारा आचरण ज्यादातर अवचेतन मस्तिष्क से निर्धारित होता है, और अवचेतन मस्तिष्क का ज्यादातर व्यवहार नकारात्मक और दुर्बल बनाने वाला माना गया है, तो हम बेसुधी में अपना नुकसान करते हैं। ऐसा काम करते हैं जो खुद हमें बरबाद करता है। अपने अवचेतन मस्तिष्क के उत्पात से बेखबर हम अपने आपको परिस्थितियों के आगे मजबूर महसूस करते हैं।
जो लोग रचनात्मक ढंग से सोचने की अवस्था में होते हैं, आनन्द में रहते हैं, उनका चेतन मस्तिष्क 80 प्रतिशत समय सजग रहता है। चेतन अवस्था में लिए निर्णय और हुए अनुभव किसी भी व्यक्ति की मनोकामनाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होते हैं। तब मस्तिष्क अपने अवचेतन के प्रतिबंधक ढर्रों पर बार-बार वापस नहीं लौटता है। लेकिन यह रचनात्मक अवस्था सदा नहीं रहती है। जल्दी ही अवचेतन कमान पर लौट आता है।
जब हमारा मन ठीक नहीं होता, तब हम नकारात्मक भावनाओं से बुरी तरह घिर जाते हैं, जिसका सीधा असर स्वास्थ्य पर होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच पर किये गए नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार यह देखा गया है कि अगर लोगों का मनोबल पहले से ही उच्च है तो उसका चमत्कारिक प्रभाव उनके मन और तन पर पड़ता है। यदि उनका मनोबल निम्न स्तर का है तो वह उतना प्रभाव नहीं डाल पाता, क्योंकि दिन भर में उनकी सोच नकारात्मकता से भरी हुई रहती है। इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान यह है कि हम खुद को इतनी अच्छी तरह से जान लें कि हमें इस बात का सहज एहसास हो जाए कि हमारे मन के लिए क्या अच्छा है। अपने भीतर के अच्छे तत्वों को जानने से हमारे विचारों और भावनाओं की गुणवत्ता में गहरा परिवर्तन आता है, जो चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में हमें शांत और प्रेम से रहने में सक्षम बनाता है।
प्यार की स्थिति में मस्तिष्क में फिनाइलेथेलेमाइन नामक रसायन का स्राव अधिक होने से प्यार परवार चढ़ता है। इस रसायन के प्रभाव से सारी इन्द्रिया अति सक्रिय हो जाती हैं। प्यार में डोपेमिन तथा नारपाइनफ्रिन रसायन भी अहम भूमिका निभाते हैं। डोपेमिन के प्रभाव में सामने वाले का साथ अच्छा लगने लगता है। नारपाइनफ्रिन की मदद से एड्रेनेलिन का प्रवाह तेज हो जाता है। उत्तेजना बढ़ने से दिल की धड़कन तेज हो जाती है। शुरू-शुरू में इन रसायनों का प्रवाह इतना तीव्र होता है कि नए प्रेमी घंटों साथ रहते हैं, तब भी उन्हें साथ बिताया समय कम लगता है।
डोपेमिन हार्मोन का स्राव किसी वस्तु की चाह होने पर भी होता है। चाह पूरी होने पर भी इसका स्तर बढ़ता है। डोपेमिन हार्मोन का पर्याप्त स्तर व्यक्ति को सामाजिक बनाता है। सेरोटोनिन हार्मोन खुशी के एहसास को बढ़ता है। मेलाटोनिन हार्मोन निद्रा व जागरण के लिए उत्तरदायी होता है।
शोध से पता चलता है कि सेक्स से एस्ट्रोजन हार्मोन के स्रावित होने से शरीर में आस्टियोपोरेसिस नामक बीमारी नहीं होती। सेक्स से एंडार्फिन हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे त्वचा सुंदर, चिकनी और चमकदार हो जाती है। सेक्स के दौरान फेरोमोन्स नामक रसायन शरीर में एक तरह की गंध उत्पन्न करता है जिसे सेक्स परफ्यूम भी कहा जाता है जो दिमाग को सुखानुभूति कराता है। सेक्स हृदय रोग, मानसिक तनाव, रक्तचाप, सिरदर्द, पीठ दर्द, गर्दन दर्द, माइग्रेन और दिल के दौरे से भी दूर रखता है।
शरीर में स्नायु तंत्र शरीर की अद्वितीय संचार प्रणाली है जो न केवल समस्त ऐच्छिक तथा अनैच्छिक क्रियाओं का संचालन एवं नियंत्रण ही करती है बल्कि हमारे सोचने से भी तेज गति से शरीर के विभिन्न भागों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान भी करती है। इस प्रणाली के मुख्य रूप से दो भाग हैं, एक केन्द्रीय स्नायु प्रणाली तथा दूसरी गौण या पेरीफेरल स्नायु प्रणाली। केन्द्रीय स्नायु प्रणाली में मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु (स्पाइनल कार्ड) आते हैं। पृथ्वी पर पाया जाने वाला प्रत्येक प्राणी सृष्टि की अनोखी अभिकल्पना है, जिसमें विभिन्न प्रकार की जैव-रासायनिक क्रियाएं पाई जाती है। ये क्रियाएं उसी क्षण प्रारम्भ हो जाती हैं, जैसे ही एक नए जीवन की नींव रखी जाती है। इन्हीं जैव रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप सूक्ष्म निषेचित अंडा अथवा जाइगोट, जो केवल एक कोशिका का बना होता है, एक पूर्ण विकसित प्राणी बन जाता है।
अरबों स्नायु कोशिकाओं से युक्त मस्तिष्क शरीर की सबसे नाजुक सबसे जटिल तथा सबसे महत्वपूर्ण संरचना है। शायद इसीलिए प्रकृति द्वारा इसे शरीर में सबसे ऊपर खोपड़ी की मजबूत हड्डी के बीच सुरक्षित रूप से रखा गया है। मनुष्य के मस्तिष्क का औसत वजन 1ण्3 से 1ण्4 किग्रा। होता है। मस्तिष्क का पिछला भाग अनुमस्तिष्क (सेरीबेलम) मांसपेशियों की विभिन्न प्रकार की गतियों एवं उनके संतुलन को नियंत्रित करता है तथा अगला भाग (सेरीवरल) कहलाता है जो किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने, सोचने, पहचानने, सूंघने एवं ऐच्छिक गतियों को नियंत्रित करता है। अग्रमस्तिष्क का थेलेमस भाग शरीर की ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, कान आदि से प्राप्त सूचनाओं को मस्तिष्क के अग्रमस्तिष्क (सेरीवरल कार्टेक्स) को भेजने का कार्य करता है जो उनके अनुसार कार्य कराने में सक्षम होता है तथा साथ ही मस्तिष्क का हिपेकैम्पस भाग याददाश्त को बनाए रखने एवं भावनाओं को नियंत्रित करता है। दूसरा हाइपोथेलेमस भाग शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने का कार्य करता है।
स्नायु संस्थान की समस्त तंत्रिकाओं का निर्माण जिस कोशिका से होता है उसे न्यूरॉन या स्नायु कोशिका कहते हैं जिसकी विशेष संरचना उसे अन्य कोशिकाओं से बहुत ही तेज और परिशुद्ध संकेत भेजने में सक्षम बनाती है।
व्यायाम से हमारे सिमपैथिक स्नायुतंत्र की सक्रियता भी बढ़ जाती है, जिससे अनैच्छिक मांसपेशियां अधिक कुशलता से कार्य करने लगती है और हमारी रक्त संचरण प्रभावी पाचन प्रणाली व अन्य प्रणालियों में सुधार आने से हमारे शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है व इसके साथ ही इनकी सक्रियता से शरीर की ग्रन्थियों की क्षमता में भी वृद्धि होती है, जिससे एण्डोर्फिन, सेरोटोनिन, एड्रानालिन तथा इपिनफ्रिन जैसे लाभदायक हार्मोन जो न्यूरोट्रांसमीटर की तरह कार्य करते हैं, हमारी खेल क्षमता को निखार देते हैं, विशेष रूप से एण्डोर्फिन हार्मोन कठिन परिस्थितियों में भी उच्च कोटि का मानसिक संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ शारीरिक पीड़ा तथा थकान को कम करने में सहायक होता है।
वर्ष 2012 का रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के दो वैज्ञानिकों डॉ। लेकोविट्स एवं डॉ। कोबिल्का को संयुक्त रूप से दिया गया था। इन्होंने संचरण तंत्र के कूटवाचन की खोज की। इन वैज्ञानिकों ने कोशिकाओं की कार्य प्रणाली व उनके प्रतिक्रियात्मक वाह्य संकेतक के बीच के रिक्त स्थान की पूर्ति की। इसे मनुष्य के अंदर चलने वाली जटिल क्रियाओं को विस्तार से जानने वाली व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य उस ग्राही का पता लगाना है जो प्रकाश, स्वाद तथा गंध को कोशिका में भेजता है। इससे मानव शरीर द्वारा वाह्य संसार की संवेदनाओं को कोशिकाओं तक संवेदित करने की प्रक्रिया को समझने में भी सहायता मिलती है। उदाहरणार्थ खतरे के समय हृदय गति का बढ़ जाना, घबराहट, पसीना निकलना आदि।
यह तथ्य पहले से ज्ञात था कि प्रतिबल हार्मोन जैसे एड्रेनेलिन शरीर में प्रतिरोधी क्षमता जैसे निगाह को केन्द्रित करना, साँस की तीव्रता बढ़ाना तथा कई आवश्यक अंगों जैसे पाचन-तंत्र से रूधिर को आवश्यक अंगों में भेजना, को प्रेरित करते हैं लेकिन ये कभी भी कोशिका के अन्दर प्रवेश नहीं करते। इनकी कार्य प्रणाली अभी तक अज्ञात थी। डॉ। लेकोविट्स ने बताया कि कोशिका की ग्राही संक्रिया की धारणा लगभग एक शताब्दी पूर्व की है लेकिन 1970 के आसपास जब उन्होंने शोध प्रारंभ किया तब भी यह संदेह था कि कोई ऐसी भी अभिक्रिया होती है या नहीं, हार्मोन के साथ रेडियोधर्मी आयोडिन को जोड़कर लेकोविट्स ने हार्मोन की गति का रास्ता जानकर ग्राहियों के व्यवहार का पता लगाया। वर्षों बाद उन्होंने ग्राही प्रोटीन को निकालकर बताया कि वही विशेष अणु हैं।
अब तक यह रहस्य बना हुआ था कि हमारे शरीर की समस्त कोशिकाएं अपने वातावरण से विशेष रूप से चेतना और उत्तर कैसे देती हैं? वास्तव में कोई नहीं जानता था कि ये संवेदक बाहरी संकेतों को कोशिका भित्ति के पार अन्दर कोशिकाओं तक भेजते थे, जिसमें एक बड़ी सीमा में शारीरिक प्रक्रम होते हैं। विभिन्न ग्राहियों के आकारों के ज्ञान से औषधीय परिकल्पना में शुद्धता लाई जा सकती है। बहुत से औषधीय अणु कोशिका से केवल आवश्यक लक्ष्य पर ही संयुक्त नहीं होते बल्कि दूसरे ग्राही पर भी होते हैं, जिससे पार्श्व प्रभाव पैदा होते है। विस्तृत संरचना जानने के बाद अब हम अधिक वरणीय और प्रभावशाली औषधि का निर्माण कर सकेंगे।

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