तकनीकी


सबल बनाए तकनीक

बालेन्दु षर्मा ‘दाधीच’

प्रो. स्टीफन विलियम हाकिंग, इस सहस्त्राब्दि के श्रेष्ठतम खगोलभौतिकीविदों और गणितज्ञों में से एक किंतु एक गंभीर शारीरिक बीमारी के कारण लगभग पूरी तरह लकवाग्रस्त। इक्कीस साल की उम्र में (सन् 1963 में) प्रो. हाकिंग एमियोट्रोफिक लैटरल स्क्लेरोसिस (।उलवजतवचीपब स्ंजमतंस ैबसमतवेपे) या एएलएस नामक गंभीर बीमारी के शिकार हो गए। डॉक्टरों ने कहा कि वे दो-तीन साल से अधिक नहीं जिएंगे। लेकिन प्रो. हाकिंग अपने आत्मबल के दम पर न सिर्फ पाँच दशक से इस बीमारी को हराते आ रहे हैं बल्कि उन्होंने अपने कामकाज में भी विराम नहीं आने दिया। उनकी बेस्टसेलिंग पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ टाइम’ इसी दौरान आई और दर्जनों नई, रोमांचक तथा आश्चर्यजनक खोजें भी। प्रो. हाकिंग न सिर्फ अपनी अद्वितीय प्रतिभा के कारण, न सिर्फ मानवीय सीमाओं को पराजित करने के कारण बल्कि तकनीक का आदर्श इस्तेमाल करने के कारण भी प्रेरणा का स्रोत बन गए हैं।

एएलएस मस्तिष्क और मेरु-रज्जु के उन भागों को निष्क्रिय करती चली जाती है जो इंसान के चलने, बोलने, सांस लेने और निगलने जैसी प्रक्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। लेकिन हमारी मेधा इससे अप्रभावित रहती है। 1970 के दशक में ही उनकी आवाज इतनी मद्धिम और अस्पष्ट हो चुकी थी कि बहुत कम लोग उसे समझ पाते थे। वे जैसे-तैसे अपनी सेक्रेटरी को डिक्टेशन देकर काम कर पाते थे। सन् 1985 में सांस की तकलीफ से निपटने के लिए हुई सर्जरी से उनकी रही-सही आवाज भी जाती रही। तब वे अक्षरों के चार्ट को देखकर एक-एक सही अक्षर के लिए आंखों की पुतलियों से इशारा किया करते थे। आप समझ सकते हैं कि एक वाक्य लिखने में भी उन्हें कितनी तकलीफ होती होगी! फिर एक सॉफ्टवेयर कंपनी वर्ड्स-प्लस के वाल्टर स्टेनले वाल्टोज (ॅंसजमत ैजंदसमल ॅवसजव्रे) ने अपने सॉफ्टवेयर ‘ईज़ी कीज़’ की एक प्रति उन्हें भिजवाई। यह सॉफ्टवेयर सिर्फ कुछ अक्षरों के आधार पर पूरे शब्द का निर्माण करने में सक्षम है और उच्चारण करने में भी। उनकी व्हील चेयर पर फिट कम्प्यूटर में इन्स्टाल किए जाने के बाद यही सॉफ्टवेयर प्रो. हॉकिंग की लेखनी और ध्वनि बन गया और अगर आज वे पूरी तरह सक्रिय रहते हुए अनुसंधान, व्याख्यान और लेखन कर पा रहे हैं तो इसके पीछे टेक्नॉलॉजी का महत्वपूर्ण योगदान है। वे एक अन्य स्पीच सिंथेसाइजर ‘नियोस्पीच’ का भी प्रयोग कर रहे हैं जो ‘ईज़ी कीज़’ से निकली ध्वनि को टाइप करता चला जाता है।

आम धारणा है कि शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे लोगों, विशेषकर नेत्रहीनों, मूक-बधिरों और हस्तहीनों के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के कोई विशेष मायने नहीं हैं। प्रो. हॉकिंग के उदाहरण से स्पष्ट है कि यह धारणा निराधार है। टेक्नॉलॉजी का उद्देश्य ही हमें विभिन्न प्रकार की अक्षमताओं और सीमाओं से उबारना है और सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो उसके लिए सामान्य लोगों और शारीरिक विकलांगों के बीच कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो बस इतना कि जहां आम लोग अपने हाथों और आंखों से कम्प्यूटर और इंटरनेट का प्रयोग करते हैं, वहीं विकलांग अपनी वैकल्पिक क्षमताओं के जरिए इन तकनीकी वरदानों का आनंद ले सकते हैं। फर्क है तो सिर्फ इंटरफेस का। यानी तकनीक और प्रयोक्ता के बीच के ‘माध्यम’ और प्रयोग के तरीकों का।

सांता क्रूज (कैलीफोर्निया) के सॉफ्टवेयर निर्माता जॉन ब्योर्नस्टैड (श्रवद ठरवतदेजंक) को ही देखिए। कुछ साल पहले वे पक्षाघात की शिकार एक महिला स्यू सैम्पसन् के संपर्क में आए जो अपनी बीमारी के कारण बाहरी दुनिया से कट चुकी थीं। जॉन ने उनकी मदद करने का फैसला किया और उन्हीं के नाम पर ‘स्यू सेन्टर’ नामक सॉफ्टवेयर का विकास किया जो विकलांगों को अन्य लोगों की ही तरह कम्प्यूटर का प्रयोग करने का अवसर देता है। प्रेजेन्टेशन बनाने, प्रिंट आउट लेने और ई-मेल भेजने जैसी चीजें हम लोगों के लिए कितनी छोटी हैं लेकिन शारीरिक सीमाओं से ग्रस्त लोगों के लिए यही ‘छोटे काम’ विशालकाय चुनौतियों से कम नहीं। ‘स्यू सेन्टर’ के जरिए वे लगभग ऐसे सभी काम कर पाते हैं, जैसे डॉक्यूमेंट बनाना, ई-मेल भेजना, वेबसाइटें देखना, एमपी 3 गाने सुनना, वीडियो देखना और यहां तक कि स्काइपी के जरिए टेलीफोन कॉल करना भी। जॉन का सॉफ्टवेयर स्यू सैम्पसन् के लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। वे वर्षों तक सबसे जुड़ी रहीं। आज स्यू इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन जॉन अपना काम जारी रखे हुए हैं। इस तरह के दूसरे सॉफ्टवेयर लाख-डेढ़ लाख रुपए से कम में नहीं आते। लेकिन जॉन ब्योर्नस्टैड इसे मुफ्त में देते हैं। वे इससे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं।

स्यू सेन्टर ने कितने ही विकलांगों की जिंदगी बदल दी है। ऐसे लोगों की, जो की-बोर्ड और माउस का प्रयोग करने में अक्षम हैं। यह सॉफ्टवेयर एक छोटे कैमरे के साथ तालमेल से काम करता है जो कम्प्यूटर पर फिट कर दिया जाता है। यूज़र अपने ललाट पर एक ‘परावर्तक बिंदी’ लगाकर बैठता है। इस बिंदी से मिलने वाले संकेत कैमरे द्वारा ग्रहण किए जाते हैं जो कम्प्यूटर की स्क्रीन पर माउस ऐरो (करसर) के रूप में दिखाई देते हैं। सिर हिलाने पर करसर की स्थिति बदलती रहती है। इसके जरिए सॉफ्टवेयर की स्क्रीन पर प्रदर्शित अक्षरों को क्लिक किया जा सकता है। अंतर्निर्मित डिक्शनरी का इस्तेमाल करते हुए आप इसी छोटी सी प्रक्रिया से शब्द और वाक्य बनाते चले जाते हैं और कम्प्यूटर को कमांड्स मिलती रहती है। स्यू सेन्टर की अपनी वेबसाइट भी है-   www.suecenter.org 

कार्डिफ (कैलीफोर्निया) की ‘माइंड टेक्नॉलॉजीज’ ने विकलांगों के लिए इससे कुछ अधिक जटिल उपकरण बनाया है जिसे ‘माइंड माउस’ नाम दिया गया है। यह उनके मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले निर्देशों को कम्प्यूटर कमांड्स के रूप में प्रसारित करता है। प्रयोक्ता इमोटिव कंपनी द्वारा र्निमित एक विशेष हैडसेट पहनकर बैठता है। मस्तिष्क में पैदा होने वाले संकेतों को चौदह अलग-अलग किस्म के सेंसर ग्रहण करते हैं। इन संकेतों को ब्लूटूथ के जरिए एक रिसीवर में भेजा जाता है जो उन्हें कम्प्यूटरीय निर्देशों में बदलता है। माइंड माउस के जरिए विकलांग न सिर्फ कम्प्यूटर का संचालन कर सकते हैं बल्कि पूरी की पूरी ईमेल भी लिखकर भेज सकते हैं-  बिना अपनी जगह से हिले, सिर्फ अपने मस्तिष्क की शक्ति और विचारों के जरिए।

मूक बधिरों को छोड़कर अधिकांश शारीरिक विकलांगों को एक ऐसी प्रणाली का उपयोग करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए जो मौखिक निर्देशों पर अमल करें। इसी धारणा को ध्यान में रखते हुए ‘फायरसे’ (पितमेंलण्बवउ) नामक एक छोटी कंपनी ने शाब्दिक कमांडों पर आधारित सॉफ्टवेयर का विकास किया है जो फायरफॉक्स वेब ब्राउज़र को सटीक निर्देश देने में सक्षम है। कीबोर्ड-माउस के बिना कम्प्यूटर का प्रयोग करने के इच्छुक सामान्य लोग भी इसे आजमा सकते हैं। फेसबुक पर जाने के लिए ‘गो टू फेसबुक’ कहना पर्याप्त है। ‘ड्रैगन नैचुरली स्पीकिंग’ जैसे स्पीच सिंथेसाइजर (ध्वनि को पाठ में बदलने वाले सॉफ्टवेयर) भी विकलांगों का जीवन आसान बना रहे हैं। आईबीएम और सीडैक का ‘श्रुतलेखन’ भी इसी श्रेणी में आता है। पूरी तरह विकसित होने के बाद यह हिंदी भाषियों के बड़े काम का सिद्ध होगा। इधर एंड्रोइड फोन में गूगल के एक खास एप की मदद से हिंदी में बोलकर टाइप करना संभव हो गया है।

विंडोज जैसे आपरेटिंग सिस्टम में भी सीमित शारीरिक क्षमताओं वाले लोगों के लिए बेसिक स्तर की कुछ सुविधाएं मौजूद हैं। हालांकि इनके बारे में जागरूकता कम है। कमजोर दृष्टि वाले लोग विंडोज आइकन्स और डायलॉग बॉक्स आदि को बड़े अक्षरों में देख सकें, इसके लिए आपरेटिंग सिस्टम में ही व्यवस्था है। माइक्रोसॉफ्ट का ‘नरेटर’ सॉफ्टवेयर स्क्रीन पर मौजूद टेक्स्ट को पढ़कर सुनाने में सक्षम है। हिंदी में भी ‘वाचक’ और ‘प्रवाचक’ नामक सॉफ्टवेयर यही कार्य करते हैं। विंडोज के संदेशों को देखने की बजाय सुनने की सुविधा पाना चाहते हैं तो उसके ‘एक्सेसिबिलिटी फीचर्स’ का प्रयोग कीजिए। अगर हाथ अशक्त हैं या टाइपिंग में दिक्कत होती है तो ‘स्टिकी कीज़’ और ‘माउस कीज़’ का प्रयोग कीजिए। स्टिकी कीज़ यानी कीबोर्ड की किसी कुंजी पर अधिक समय तक उंगली दबे रहने पर कंप्यूटर यह न समझे कि आपने उसे एकाधिक बार दबाया है। माउस कीज़ यानी माउस का इस्तेमाल कर टाइपिंग की सुविधा।

नेत्रहीनों कम्प्यूटर और इंटरनेट का प्रयोग ध्वन्यात्मक माध्यमों से तो कर ही सकते हैं, उनके लिए एक विशेष किस्म का लैपटॉप भी मौजूद है, जिसे अपनी उंगलियों से छूकर वे ब्रेल लिपि में वैसे ही सब कुछ पढ़ सकते हैं जैसे कि आम लोग स्क्रीन पर लिखे पाठ को पढ़ते हैं। ह्यूमनवेयर ( ीनउंदूंतमण्बवउ)  नामक कंपनी का ‘ब्रेलनोट एपेक्स’ नेत्रहीनों के लैपटॉप जैसा है जिसमें एलसीडी डिस्प्ले की जगह 32 सेल का ब्रेल डिस्प्ले है। इसमें कमांड देने के लिए आठ कुंजियों वाला ब्रेल कीबोर्ड (बीटी मॉडल) भी मौजूद है। इसकी उभरी हुई पिनों को छूकर नेत्रहीन विभिन्न प्रकार की सामग्री को ‘पढ़’ सकते हैं और नोट ले सकते हैं।

तकनीक सिर्फ चुनिंदा लोगों के लिए नहीं है। जब तक उसके लाभ सब तक न पहुंचें, उसकी सार्थकता अधूरी है। सबको साथ लिए बिना संचार क्रांति और विष्व ग्राम जैसी अवधारणाओं के कोई मायने नहीं है। तकनीकी जगत को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास तो हो रहा है लेकिन अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है।

 

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