सामयिक


श्रद्धांजलि

बहुआयामी विरल विज्ञानी 

प्रो.एम.जी.के.मेनन

शुकदेव प्रसाद

28 अगस्त, 1928 को मैंगलोर (कर्नाटक) में के.एस.मेनन और श्रीमती एम.नारायणी अम्मा की संतति ने जन्म लिया जिसे प्यार से उसे लोग ‘गोलू’ बुलाते थे। उस बालक का नाम था एम.जी.के.मेनन, (मम्बिल्लिकलाथिल गोविंद कुमार मेनन), वैज्ञानिक जगत में लोग उन्हें उनके संक्षिप्त नाम एम.जी.के. से ही संबोधित करते थे और वह इसी नाम से लोकप्रिय भी थे।
मेनन ने अपनी आरंभिक शिक्षा गुड शेफर्ड कानवेंट स्कूल (मद्रास), दरबार हाई स्कूल, जोधपुर, जसवंत कालिज, जोधपुर (1942-44) से प्राप्त की, तदुपरांत जसवंत कालिज, जोधपुर (1944-46) से ही बी-एससी. की डिग्री हासिल की। प्रो.एन.आर. तावड़े की देख-रेख में उन्होंने रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, मुंबई (1946-49) से एम. एससी. की उपाधि अर्जित की।
विज्ञान में परास्नातक की उपाधि अर्जित करने के उपरांत वह शोध करने के लिए ब्रिटेन चले गए। वहां उन्होंने प्रो.सी.एफ.रावेल के निर्देशन (1949-52) में ब्रिस्टल विश्वविद्यालय से पी.एचडी. की और वहीं से (1952-55) तक परा डाक्टोरल संधान भी किए।
मेनन ने जब ब्रिस्टल से पी.एचडी. की उपाधि अर्जित की थी, तब उनकी उम्र मात्र्ा 25 वर्ष की थी। मेनन ने विज्ञान के क्षेत्र्ा में जो भौतिक शोधें की, वे ब्रह्मांडीय किरण भौतिकी और तात्विक कण उच्च ऊर्जा भौतिकी  से संबद्ध हैं जिनकी सार्वकालिक महत्ता है और वे अविस्मरणीय हैं। मेनन से पूर्व इन क्षेत्र्ाों में कदाचित ही किसी ने अनुसंधान किया हो, इसकी वैज्ञानिक जन मानस में स्वीकृति है। ऐसे संधान मेनन ने ही पहले-पहल किए थे, जिसकी बदौलत परिवर्ती ऊर्जीय म्यूआनों , उच्च ऊर्जा आवेशित पाओन ;च्पवदेद्ध और इलेक्ट्रानों के अस्तित्व का प्रदर्शन संभव हो सका। बेशक इस संधान यात्र्ाा में एम.डब्ल्यू.फ्रीडलैंडर, डी.कीफे और वॉन रोसुम उनके सहधर्मी थे।


टी.आई.एफ.आर. से शानदार कैरियर की शुरुआत

तरुण विज्ञानी मेनन के आरंभिक शोध कार्यों की विज्ञान जगत में खासी चर्चा हो चुकी थी। भारत के परमाणु पितामह भाभा साहब (डॉ. होमी जहांगीर भाभा) ने उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें टाटा आधारभूत अनुसंधान संस्थान व मुंबई को ज्वाइन करने का आमंत्र्ाण भेजा जिसे मेनन ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया और इस प्रकार उनका विदेश प्रवास समाप्त हुआ और वे उसी वर्ष (1955) स्वदेश लौट आए। डॉ. भाभा गुणग्राही थे, वे प्रतिभाओं को पहचानते थे और खींच-खींचकर उन्हें यहां बुलाते थे। यूं तो यह प्रयोगशाला भाभा साहब की निजी प्रयोगशाला (7, पेडर रोड, मुबई) थी जो टाटा ट्रस्ट के अनुदान से निर्मित (टाटा ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष दोराब जी टाटा उनके सगे मौसा थे) हुई थी। जब पंडित नेहरू को इसकी भनक लगी तो उन्होंने कहा कि यह तो होमी की निजी प्रयोगशाला है, हमें सरकारी क्षेत्र्ा की प्रयोगशाला चाहिए।
फलस्वरूप पं. नेहरू ने देश के आजाद होते ही अगले साल (1948), अपने सहयोगियों के तमाम विरोधों के बावजूद डॉ. भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन किया और 1954 में परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान की ट्रांबे, मुंबई में स्थापना की, निस्संदेह डॉ. भाभा ही उसके अध्यक्ष थे। उसी वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग भी स्वतंत्र्ा रूप से अस्तित्व में आया जिसके सचिव भाभा साहब ही थे। 1966 में एक हवाई दुर्घटना में डॉ. भाभा के त्र्ाासद निधन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने अगले वर्ष (1967) डॉ. भाभा की स्मृति को जीवंत बनाए रखने के लिए परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान का नाम बदलकर ‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र’ ;ठींइीं ।जवउपब त्मेमंतबी ब्मदजतमए ठ।त्ब्द्ध रख दिया। बार्क ही वह संस्था है जो भारत के परमाणु कार्यक्रमों की जननी है।
आज यदि हम विगत शती के चर्चित एवं लब्ध प्रतिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों की सूची बनाएं तो हमें अधिकांश नाम ऐसे मिलेंगे जो टी.आई.एफ.आर. से गहन रूप से सम्बद्ध थे और उन्होंने अपने वैज्ञानिक कैरियर की शुरुआत ही वहीं से की, चाहे प्रो. यशपाल हों, जयंत विष्णु नार्लीकर हों, डॉ. राजा रामण्णा हों या कि होमी सेठना और एम.आर.श्रीनिवासन या कि एम.जी.के.मेनन... और बहुत से ऐसे विज्ञानी, जिनकी फेहरिस्त लंबी है। टी.आई.एफ.आर. से निकलने के बाद ये सारे लोग अपने-अपने क्षेत्र्ाों में देश के शीर्षस्थ विज्ञानी बने और देश-विदेश में उन्होंने अपार यश अर्जित किया। एम.जी.के. भाग्यशाली थे कि उन्हें भाभा साहब का स्नेहाशीष मिला, जिन्होंने अनगिनतों को अंगुली पकड़कर चलना सिखाया।

स्टेट्समैन ऑफ सायंस: विज्ञान से राजनय तक का सफरनामा

मेनन ने 1955 में रीडर के रूप में टी.आई.एफ.आर. ज्वाइन कर ली जहाँ वे सफलता की एक-एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए क्रमशः सहायक प्रोफेसर, प्रोफेसर, उपनिदेशक बने और अंततः उसके सर्वोच्च पद (निदेशक) के आसन पर जा विराजे। मेनन ने 1955 से लेकर 1975 तक टी.आई.एफ.आर.को अपने सेवाएं दी और उसे उर्ज्वस्ति भी किया। तदुपरांत वे भारत सरकार के नवगठित इलेक्ट्रॉनिकी विभाग में चले गए जहाँ पर वह इलेक्ट्रॉनिकी आयोग के अध्यक्ष, इलेक्ट्रॉनिकी विभाग में भारत सरकार के सलाहकार (1971-78) रहे। 1974-78 तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) के महानिदेशक के रूप में उन्होंने देश के रक्षा उपक्रमों को त्वरा दी। यह वही क्षण थे जब कलाम को उनका मार्गदर्शन और स्नेहाशीष मिला और कालांतर में कलाम भारत के ‘मिसाइल मैन’ की संज्ञा से आभिहित किए जाने लगे।
1980-81 में वह पर्यावरण विभाग, भारत सरकार के सचिव भी रहे। अतिरिक्त ऊर्जा स्रोत आयोग के अध्यक्ष (1981-82); कैबिनेट की विज्ञान परामर्शदात्र्ाी समिति के अध्यक्ष (1982-85); विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के सचिव (1978-82); योजना आयोग, भारत सरकार के सदस्य (1982-89); प्रधानमंत्र्ाी (राजीव गांधी) के वैज्ञानिक सलाहकार (1986-89) आदि नाना पदों को सुशोभित करते हुए उन्होंने राष्ट्र को अपनी बहुविध सेवाएं प्रदान की। इतना ही नहीं, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की (अल्पकालीन) सरकार बनी तो उन्हें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्र्ाी (1989-90) और शिक्षा राज्य मंत्र्ािपद (1990) से भी नवाजा गया। प्रो. मेनन 1990 से 1996 तक राज्य सभा सदस्य भी रहे। उनकी इन्हीं उपलब्धियों के कारण उन्हें ‘स्टेट्समैन ऑफ सायंस’ भी कहा जाता है। तो इस तरह हम देखते हैं कि भाभा साहब के स्नेहामंत्र्ाण से गद्गद तरुण विज्ञानी एम.जी.के.मेनन ने टी.आई.एफ.आर.लैब को ज्वाइन किया, वह उनके लिए शानदार लांच पैड साबित हुई।
यहाँ पर प्रो. मेनन के द्वारा नाना दायित्यों के कुशल निर्वहन के साथ एक और प्रकरण का उल्लेख वांछनीय है जो अपने आप में अपूर्व है। भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक प्रो. विक्रम अंबालाल साराभाई थुंबा (केरल) में एक राकेट के उड़ान का मार्गदर्शन कर रहे थे। उसी रात (29 दिसम्बर, 1971) उनका त्र्ाासद निधन हो गया, ऐसी संक्रमणकालीन बेला में प्रो. मेनन को ‘इसरो’ (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के अतिरिक्त अध्यक्ष का पद भार संभालना पड़ा। साथ ही डॉ. साराभाई द्वारा अहमदाबाद में स्थापित पी. आर. एल. (भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला) के सर्वेसर्वा का कार्यभार उन्होंने संभाला। साराभाई द्वारा स्थापित पी.आर.एल. ही भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रमों की जननी है। फिर उन्होंने प्रो. सतीश धवन को ‘इसरो’ की कमान सौंपी। उस समय प्रो. धवन भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलोर थे। कहना न होगा कि प्रो. मेनन ने इस पद के लिए एक ऐसे विज्ञानी का चयन किया जिसने अपने तकनीकीविदों के सहयोग से साराभाई के सपनों में रंग भरा और प्रायः दो दशकों तक वह ‘इसरो’ के अध्यक्ष के रूप में रहकर देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को बुलंदियों तक पहुंचा दिया। भारत के प्रथम राकेट प्रक्षेपण केंद्र ‘शार’ श्रीहरिकोटा, आंध्र प्रदेश का नामकरण अब सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र करके कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी स्मृति को जीवंत बना दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रो. मेनन गहन अनुसंधानकर्त्ता के साथ ही कुशल प्रशासक, महान संगठनकर्त्ता और सायंस के ‘पालिसी मेकर’ की भूमिका में भी अप्रतिम थे।


तरुण विज्ञानियों के प्रेरणापुंज

प्रो. मेनन के व्यक्तित्व की एक विशिष्टता यह भी थी कि वे तरुण विज्ञानियों की हौसला अफजाई गर्मजोशी से करते, उनकी प्रतिभा को निखारने में अपना महत्वपूर्ण अवदान देते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में नाना पदों पर रहते हुए जाने कितने तरुण विज्ञानियों का उत्साहवर्धन, मार्गदर्शन करके उन्हें शीर्षस्थ बना दिया जिन्होंने अपने-अपने संधान क्षेत्र्ाों में अंतर्राष्ट्रीय यशस्विता अर्जित की और भारत का भाल ऊँचा किया। यहाँ पर हम मात्र्ा डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की ही चर्चा कर सकेंगे। भारतीय राकेटों के जनक, ‘मिसाइल मैन ऑफ इंडिया’ की संज्ञा से अभिहित कलाम की आत्मस्वीकृति है कि प्रो. मेनन से उनकी भेंट न हुई होती और वे उनका मार्गदर्शन न करते तो वे कदाचित उस मुकाम तक न पहुँच सकते थे, जहाँ तक वे पहुँचे। डॉ. कलाम अपनी आत्मकथात्मक कृति ‘विंग्स ऑफ फायर’ में बड़ी विनम्रता से इसे स्वीकारते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं -
उन दिनों वी.के.कृष्णमेनन रक्षामंत्र्ाी हुआ करते थे। वे हमारी इस परियोजना (हॉवरक्राफ्ट का निर्माण) की प्रगति के बारे में जानने के बड़े इच्छुक रहते। इस परियोजना को वह भारत के रक्षा उपकरणों के स्वदेशी विकास की शुरुआत के रूप में देखते थे। भगवान शिव के वाहन के प्रतीक रूप में इस हॉवरक्राफ्ट को ‘नंदी’ नाम दिया गया। इस मॉडल को संपूर्ण आकार एवं रंग-रूप दिया जाना हमारी उम्मीदों से परे था। हमारे पास इसका केवल ढांचा ही था। मैंने अपने साथियों से कहा, ‘यह उड़ने वाली मशीन है, सनकियों के समूह द्वारा बनाई गई नहीं बल्कि इंजीनियरों की योग्यता से तैयार मॉडल। इसकी तरफ मत देखिए। यह देखने के लिए नहीं बना है बल्कि इसके साथ उड़िए।’ रक्षामंत्र्ाी कृष्णमेनन ने अपने साथ आए अधिकारियों द्वारा व्यक्त की गई सुरक्षा संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज करते हुए ‘नंदी’ में उड़ान भरी। वे बहुत खुश थे - ‘तुमने दिखा दिया है कि हॉवरक्राफ्ट के विकास में जो बुनियादी समस्याएँ थीं, उन्हें दूर कर लिया गया है। इससे भी शक्तिशाली वाहन तैयार करो और मुझे दूसरी बार की सवारी के लिए बुलाओ।’
एक दिन डॉ. मेदीरत्ता ने मुझे बुलाया और हॉवरक्राफ्ट के बारे में पूछताछ की। जब उन्हें बताया गया कि यह उड़ान भरने के लिए पूरी तरह सक्षम है, तो उन्होंने मुझे अगले दिन एक विशिष्ट व्यक्ति के समक्ष इसका प्रदर्शन करने को कहा। अगले दिन डॉ. मेदीरत्ता उस विशिष्ट अतिथि को हमारा तैयार किया हुआ हॉवरक्राफ्ट दिखाने लाए। एक लंबा, खूबसूरत और दाढ़ीवाला व्यक्ति। उस शख्स ने मुझसे कई सवाल किए। मैं उनकी साफ सोच एवं विषयनिष्ठता से बहुत प्रभावित हुआ। ‘क्या आप मुझे इसमें सवारी करा सकते हैं?’ उन्होंने मुझसे पूछा। उनके इस अनुरोध से मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आखिरकार किसी ने तो यहाँ आकर मेरे काम में दिलचस्पी दिखाई। इस हॉवरक्राफ्ट में हमने करीब दस मिनट तक हवा पर सवारी की, हालाँकि ‘नंदी’ जमीन से कुछ ही सेंटीमीटर ऊपर था। दरअसल यह उड़ान नहीं थी बल्कि हम हवा में तैर रहे थे। नंदी पर आरूढ़ इस अतिथि ने मुझसे मेरे बारे में कुछ सवाल पूछे तथा सवारी कराने के लिए धन्यवाद दिया और रवाना हो गए। खुद पहले अपना परिचय नहीं देने वाले ये विशिष्ट अतिथि कोई और नहीं बल्कि प्रो.एम.जी.के.मेनन थे। एक हफ्ते बाद मुझे इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च की ओर से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। यह साक्षात्कार रॉकेट इंजीनियर पद के लिए था। उस समय भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति के बारे में जितना मालूम था, वह यह कि भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए टी.आई.एफ.आर. में विलक्षण लोगों की एक संस्था बनाई गई है।
मेरा साक्षात्कार डॉ. विक्रम साराभाई ने लिया। उनके साथ प्रो.एम.जी.के.मेनन और परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन उपसचिव श्री सर्राफ भी थे। जैसे ही मैंने कमरे में प्रवेश किया, मुझे उत्साहवर्द्धक और दोस्तानापूर्ण माहौल महसूस हुआ। डॉ. साराभाई की जिंदादिली देखकर मैं दंग रह गया। उनमें कहीं कोई ऐसा अहंकार, अक्खड़पन या अतिरेक का भाव नहीं था, जैसा कि प्रायः साक्षात्कार लेने वाले नौजवान उम्मीदवार के सामने प्रदर्शित करते हैं।
मुझे दो दिन में वापस आने को कहा गया। पर फिर अगले दिन शाम को ही मुझे मेरे चयन के बारे में बता दिया गया। मुझे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति में रॉकेट इंजीनियर के पद पर रख लिया गया। मेरे जैसे नौजवान के लिए अपना सपना पूरा करने का यह एक बड़ा मौका था।
उसके बाद शीघ्र ही मुझे रॉकेट प्रक्षेपण की तकनीकियों का प्रशिक्षण लेने के लिए अमेरिका में नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन यानी ‘नासा’ में भेज दिया गया। यह प्रशिक्षण छह महीने का था।’
‘नासा’ से लौटने के बाद भारत में रॉकेट निर्माण संबंधी कार्य आरंभ हुए। कलाम के निर्देशन (परियोजना निदेशक) में भारत के पहले रॉकेट ‘एस एल वी-3’ का निर्माण हुआ। एस.एल.वी.-3 की सफल उड़ान (17 अप्रैल, 1983) के साथ भारत अंतरिक्ष क्लब का छठां सदस्य राष्ट्र बन गया और इसी के साथ भारत के प्रक्षेपाó कार्यक्रम का जन्म हो गया। श्रीमती इंदिरा गांधी की निजी पहल पर 286 करोड़ रूपये के आरंभिक पूंजी निवेश के साथ कलाम के निर्देशन में आई.जी.एम.डी.पी. का गठन हुआ और कलाम तथा उनके सहयोगियों ने मात्र्ा 6 वर्षों की लघु अवधि में भारत की 5 प्रक्षेपाó प्रणालियों पृथ्वी, अग्नि, नाग, आकाश और त्र्ािशूल का सफलतापूर्वक विकास सम्पन्न करके दिखा दिया। इनमें से तीन मिसाइलों - पृथ्वी, अग्नि और आकाश की सैन्य तैनाती हो चुकी है और इस प्रकार कलाम भारतीय प्रक्षेपाó विकास के सिरमौर बन गए और वे ‘मिसाइल मैन’ की संज्ञा से लोक में प्रख्यात हो गए।
अपनी आत्मकथा का समाहार करते हुए कलाम बड़ी शिद्दत से अपने गुरुओं और प्रेरणापुंजों को स्मरण करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी - ‘यह कहानी शिव सुब्रह्मणय्म अय्यर और अय्यादुरै सोलोमन के शिष्य की कहानी है।’ यह उस छात्र्ा की कहानी है जिसे ‘पनदलाई जैसे शिक्षकों ने पढ़ाया।’ यह कहानी उस इंजीनियर की कहानी है जिसे एम.जी.के. मेनन ने उठाया और प्रो. साराभाई जैसी हस्ती ने तैयार किया और एक ऐसे कार्यदल नेता की कहानी जिसे बड़ी संख्या में विलक्षण व समर्पित वैज्ञानिकों का समर्थन मिलता रहा। यह छोटी सी कहानी मेरे जीवन के साथ समाप्त हो जायेगी। मैं नहीं चाहता कि मैं दूसरों के लिए कोई उदाहरण बनूं लेकिन मुझे विश्वास है कि कुछ लोग मेरी इस कहानी से प्रेरणा जरूर ले सकते हैं।’


विज्ञान संधान यात्र्ाा

मेनन ने ब्रिस्टल में अपनी डाक्टोरेट संबंधी डिग्री के लिए जो मौलिक अनुसंधान किए थे, उसकी चर्चा हम इस आलेख के आरंभ में ही कर चुके हैं। जब उन्होंने टी.आई.एफ.आर. ज्वाइन किया तब उन्होंने उच्च उन्नतांशों पर गुब्बारों से कुछ प्रयोग आरंभ किए। कहना न होगा कि बैलूनों संबंधी प्रयोगों से ब्रह्मांडीय किरणों के आरंभिक अध्ययनों हेतु ऐसी सुविधा विकसित हुई जो आगे चलकर अपरिहार्य हो गई। निसंस्देह इन प्रयोगों में वी.के.बालसुब्रह्मण्यम, जी.एस.गोखले और टी.रेदकर जैसे विज्ञानी भी उनकी टोली के सदस्य थे। सैकड़ों मिलियन घन फीट आयतन वाले गुब्बारों का निर्माणय 1,10,000 फीट की ऊँचाई तक उनकी उड़ान और उनको धरती पर पुनः प्राप्त कर लेने संबंधी प्रयोग कुछ ही वर्षों में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए। बैलूनों के निर्माण के लिए पालीमर विकसित करने की सुविधा मुंबई में स्थापित की गई। निस्संदेह यह सुविधा टी.आई.एफ.आर.के वैज्ञानिकों ने जुटाई थी। बैलूनों के उत्पादन, उनकी उड़ान, ट्रैकिंग और रिकवरी जैसी सुविधाएं विगत शती के साठादि में सफलतापूर्वक विकसित की गईं। ऐसा प्रयोग विश्व में पहली बार सम्पन्न हुआ था। आगे चलकर सोवियत संघ और जापान में भी इनका अनुसरण किया गया और ऐसी सुविधाएं विकसित की गईं। इनसे ब्रह्मांडीय विकिरणों के अध्ययन में अभूतपूर्व सफलता मिली।
आगे चलकर मेनन ने कोलार की स्वर्ण खदानों में धरती की सतह से दो मील की गहराई में न्यूट्रिनों पर गहन अनुसंधान किए। इस कार्य में डॉ. नरसिम्हम, रामन् मूर्ति, श्रीकांतन और जापान के प्रो.एस. माइयाके उनके सहधर्मी थे। तत्पश्चात् टी.आई.एफ.आर., ओसाका सिटी विश्वविद्यालय और डरहम विश्वविद्यालय, ब्रिटेन के आपसी सहयोग से इस संधान को त्वरा मिली। फलस्वरूप प्राकृतिक न्यूट्रिनों की अंतःक्रिया का सर्वेक्षण और विश्लेषण करना संभव हो सका। मूलभूत कणों के गुणधर्मों के अध्ययन और उनकी व्याख्या के लिए कण भौतिकी के क्षेत्र्ा में यह प्रगत संधान कार्य था जिसकी महत्ता सार्वकालिक है।


अलंकरण एवं सम्मान

विज्ञान जगत में प्रो. मेनन के अप्रतिम अवदानों के दृष्टिगत भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें ‘पद्मश्री’ (1961) और ‘पद्मभूषण’ (1968) जैसे नागरिक अलंकरणों से समादृत किया। सी.एस.आई.आर. का शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (1960); रॉयल एशियाटिक सोसायटी का खेतान मेडल (1978); केरल राज्य समिति विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पुरस्कार (1979); पं. जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार (1983); गुरु प्रसाद चटर्जी पुरस्कार (1985); सी.वी.रामन् मेडल (1986); ओम प्रकाश भसीन पुरस्कार (1985); जे. सी. बसु स्वर्ण पदक, सर आशुतोष मुखर्जी स्वर्ण पदक (1988); विश्व स्वास्थ्य संगठन का ‘हेल्थ फॉर ऑल’ मेडल (1988); शिरोमणि पुरस्कार (1988) आदि उनकी लब्धियों के प्रति सम्मान के प्रतीक हैं।
भारत की तीनों विज्ञान आकादमियों - नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, इंडिया, इलाहाबाद इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी, नई दिल्ली तथा इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज, बंगलौर के अध्यक्ष रहे। इतना ही नहीं, उन्हें लंदन की मशहूर वैज्ञानिक संस्था ‘रॉयल सोसायटी’ ने भी अपना फेलो (एफ.आर.एस.) चुनकर उन्हें समादृत किया। यह एक विरल सम्मान है। उन्हें देश के कई विश्वविद्यालयों-जोधपुर, दिल्ली, सरदार पटेल (वल्लभ विद्यानगर), इलाहाबाद, रुड़की, बनारस हिंदू, जादवपुर (कोलकाता), श्री वेंकटेश्वर (तिरुपति), आंध्र, उत्कल, अलीगढ़ मुस्लिम, आई.आई.टी.मद्रास, आई.आई.टी. खड़गपुर ने डी. एस.सी. की मानद उपाधियां प्रदान की। स्टीवेन्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, अमेरिका ने उन्हें इंजीनियरिंग में मानद डाक्टोरेट की उपाधि से नवाजा।
इधर कुछ वर्षों से डॉ. मेनन अस्वस्थ थे। अंततः 22 नवंबर, 2016 को नई दिल्ली में प्रो.एम.जी. के. मेनन का त्र्ाासद निधन हो गया जो समस्त विज्ञान समुदाय के लिए एक अपूरणीय क्षति है। यद्यपि अब प्रो. मेनन हमारे बीच तो नहीं हैं लेकिन उनकी यशःकाया अब भी प्रदीप्त है। हम जब भी कभी आधुनिक भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के परिप्रेक्ष्य में प्रगतसंधानों की चर्चा करेंगे या कि विज्ञानेतिहास अंकित किया जायेगा तो वह चर्चा प्रो. मेनन के नामोल्लेख के बिना अधूरी रहेगी।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, विरल एवं वरेण्य विज्ञानी प्रो. मेनन को हमारी विनम्र श्रद्धांजलियाँ। अस्तु!

 

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