पत्र प्रक्रिया


पत्र प्रतिक्रया

आपकी प्रतिष्ठित लोकप्रिय पत्रिका का दिसम्बर 2014 अंक प्राप्त हुआ। सदैव की भाँति यह अंक भी सामयिक, ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय है। लेखों के चयन, प्रस्तुतिकरण और संपादन सभी कुछ कमाल का है। आपका सम्पादकीय ‘गरम हो रही है धरती’ मात्र दो पृष्ठों में बहुत कुछ कह जाती है। विशेष रूप से अंत में - ‘क्या आपको गांधी की याद आई?’ मुझे जो लेख विशेष रूप से पसंद आये वे हैं- ‘टेलीपैथी का विज्ञान’, ‘सूरज से भी पुराने हैं समुद्र’, ‘इबोला: एक लाइलाज वायरस रोग’ और ‘कम्प्यूटर का जनक चार्ल्स बबाज’। विज्ञानकथा ‘रॉबिन से पुनर्मिलन’ रोचक तो है ही ज्ञानवर्धक भी है। बधाई, साधुवाद।

प्रेमचंद्र श्रीवास्तव, इलाहाबाद

‘इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए’ का जनवरी अंक मेरे पढ़ने में आया। पढ़कर लगा कि आपको चिट्ठी लिखनी चाहिए। चिट्ठी इसलिए भी लिखनी थी कि इधर आपके साहित्य को मैंने देखा-पढ़ा। पढ़कर लगा कि हिन्दी में ऐसी रोचक विज्ञान पत्रिका मैं पहली बार देख रहा हूँ। अगर कहीं से छपती हो तो इसकी जानकारी मुझे नहीं है। उन्हें छोड़ दें तो यह पत्रिका मेरे संज्ञान में पहली ही है जो बहुत ही सलीके से विज्ञान के साथ जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष को रख रही है। आपकी संपादकीय ‘पर्दे के पीछे का सच’ विकीपीडिया के इतिहास नफे-नुकसान और उसके अस्तित्व को सामने लाती है। नार्लीकर और जे.बी.एस. हाल्डेन की सामग्री बहुत ही अच्छी है। ऐतिहासिक पृष्ठ तो सचमुच इतिहास की दृष्टि से ही देखना चाहिए। तकनीक पर जो लेख लिखे गए हैं वे रोचक होने के साथ-साथ हमारी जानकारी तथा जिज्ञासा में वृद्धि करते हैं। हालांकि रविशंकर श्रीवास्तव ने बहुत ही हल्के-फुल्के ढंग से लिखा है। उन्हें अभी भाषायी परिष्कृति की ओर ध्यान देना होगा। लेखक को हर हाल में लेखन के उस रस से बचना चाहिए जो उसकी गंभीरता को भंग करता है। मेरी नजर में उनकी स्मार्ट यात्रा, स्मार्ट इंफार्मेशन तो है स्मार्ट एक्स्प्रेशन नहीं है। शशि शुक्ला और बालेन्दु शर्मा ‘दाधीच’ के लेख इस अंक को ऊँचाई प्रदान करते हैं। अंक को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है, उस पर अलग से बात की जा सकती है। इस संुदर संयोजन के लिए बधाई।

राजेश झरपुरे, छिंदवाड़ा

दिसम्बर का अंक पर्यावरण विशेषांक के रूप में नजर आया। संपादकीय, वैश्विक तपन को कम करने एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए कारगर सिद्ध होगी। डॉ. मनमोहन बाला की ‘भारत-पाक युद्ध की अनकही विज्ञान गाथा’ रक्षा को मजबूत एवं उनके गौरवान्वित कार्य हेतु एक सकारात्मक पहल है - जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान। मनीष श्रीवास्तव का लेख ‘कम्प्यूटर के जनक चार्ल्स बबाज’ अच्छा एवं रोचक लगा। मैं आपको व्यक्तिगत रूप से बधाई एवं धन्यवाद देता हूँ क्योंकि इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए के कुशल संपादन में सभी का बराबर का योगदान है। पत्रिका के उज्ज्वल भविष्य की कामना ईश्वर से करता हूँ। 

संजय गोस्वामी, मुंबई

दिसम्बर अंक में आपकी सम्पादकीय ‘गरम हो रही है धरती’ पढ़कर सचमुच गांधी जी की याद आयी। वस्तुतः महात्मा गांधी ही वे भारतीय हैं जो पुरातन भी उतने ही हैं जितने आधुनिक हैं। उनमें एक ऐसा साम्य हम देख पाते हैं जो हमारी परंपराओं के निर्वहन से आरंभ होता है और विज्ञान तथा तकनीक के व्यवहारिक जीवन पर आ ठहरता है। उन्हें भारतीय समाज की बहुत गहरे तक चिंता थी लेकिन वे अपने भारत से प्रेम भी उतना ही करते थे। आपकी संपादकीय और आपके कामों को देख यह कहना चाहूंगा कि आप भी ठीक-ठीक वैसे ही लगते हैं। आज की आवश्यकता भी यही है, हमें वैचारिक रूप से गांधी के निकट जाना होगा और उन्हें व्यवहार में भी लाना होगा। आज हम अपने शहरों में देखते हैं कि फैशन की तरह उन्हीं की तर्ज पर झाडू लगाई जा रही है। इस तरह कहा जा सकता है कि झाडू लगाई नहीं जा रही झाडू फेरी जा रही है। हमारे देश की बहुत सी पत्रिकाएं और शासकीय संस्थान इस तरह के झाडू फेरने और पानी फेरने के उपक्रम में शामिल हैं। बहरहाल, आपके इस अंक को पढ़कर सुख की अनुभूति होती है। यह विज्ञान के पाठकों के लिए बहुत ही उपयोगी है। इस अंक में ‘टेलीपैथी का विज्ञान’ लेख अत्यधिक रोचक और ज्ञानवर्धक है। वैसे यह लेख पढ़कर लगता है कि लेखक के लिए इसे लिखते समय यह खतरा बना रहा होगा कि वह किसी अलौकिक संसार की बात करने न लग जाए, लेकिन डब्ल्यू.एच.मायर्स, आइंस्टाइन के जिक्र के साथ ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे बहुत ही प्रामाणिक बात कर रहे हैं। लेख धाराप्रवाह और लय में लिखा गया है फिर भी उपशीर्षक बाधा बनते हैं। एक लेख और है जिसकी मैं प्रशंसा करना चाहूंगा। वह लेख है - ‘इबोला: एक वायरस रोग’। करेंट अॅफेयर में इस तरह की सामग्री पत्रिका में अवश्य होनी चाहिए। आप नए लेखकों को मंच देकर बहुत नेक काम कर रहे हैं। आपके हिस्से यह श्रेय भी जाता है कि आप नए लेखक का निर्माण कर रहे हैं। दिसम्बर अंक में प्रकाशित मनीष श्रीवास्तव के लेख के विषय में कहना चाहूंगा कि चार्ल्स बबाज़ को कम्प्यूटर का जनक नहीं कहा जा सकता। वे तो सिर्फ ड्राफ्ट तैयार कर गए थे। मनीष श्रीवास्वत ने कम्प्यूटर के नाम पर जिस मशीन का जिक्र किया है वह कम्प्यूटर से बहुत भिन्न थी। उसे कम्प्यूटर कहना सर्वथा अनुचित है। उसके आविष्कारों में डायनेमीटर, काऊकैचर लाइट हाऊस, मानक रेलरोड प्रमापी, हीलोग्राफ और ऑप्थेल्मोस्कोप थे। इस लेख में एक और त्रुटि है, वह यह कि ‘बबाज़’ वास्तव में ‘बैवेज़’ है। उसे ‘बबाज़’ लिखा ही नहीं जा सकता। नार्लीकर से लेकर सुबोध महंती सभी ने उन्हें बैवेज़ ही लिखा है। भविष्य में आप कोई जानकारी परक लेख छापें तो पुष्टि अवश्य कर लें क्योंकि आपकी पत्रिका विद्यार्थियों के बीच पढ़ी जाती है। आपकी पत्रिका का कॅरियर कॉलम बहुत अच्छा है इससे जो लोग जिस क्षेत्र में जाना चाहें, जानकारी लेकर जा सकते हैं। आप बहुत मेहनत से यह पत्रिका निकाल रहे हैं मेरी ओर से बधाई और साधुवाद।

मनीष पाराशर, भोपाल

नया अंक मिल गया है। केन्द्र के बच्चे बहुत रुचि लेकर इसे पढ़ते हैं। मैंने आपसे भी निवेदन किया था कि कम-अज-कम मध्यप्रदेश के सभी जिलों के प्रमुख और कार्यपालन अधिकारी के पास यह पत्रिका जाना चाहिए। इस पत्रिका के बार-बार नजर आने से हमें खुद को इन्ट्रड्यूस कराने में दिक्कत नहीं होती है। वैसे भी पत्रिका शिक्षा, तकनीक और विज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ रही है। इन दिनों बहुत अच्छे अंक निकल रहे हैं - मुबारक।

लुकमान मसूद, खंडवा