विशेष


चिंतन है विकास का रास्ता

ए.पी.जे.अब्दुल कलाम

मित्रों, हमें यह जानना चाहिए कि मानव मस्तिष्क एक अनोखा उपहार है। आप इसमें तभी प्रवेश कर सकते हैं जब आप में जिज्ञासा हो और चिंतन हो। मैं आप सभी को सुझाव देता हूँ कि चिंतन को आपकी पूंजीगत धरोहर बन जाना चाहिए। गैर चिंतन व्यक्ति, संस्थान और देश के लिए विनाश है। चिंतन क्रिया को जन्म देता है। बिना किसी कार्यवाही के ज्ञान व्यर्थ और गैर प्रासंगिक है। कार्यवाही युक्त ज्ञान समृद्धि लेकर आता है।
मैं चाहूँगा कि एक विद्यार्थी के रूप में आपके पास ऐसा मस्तिष्क हो जो मानव जीवन के प्रत्येक पहलू की खोजबीन करे। हम अकेले नहीं हैं। समस्त ब्रह्मांड हमारे लिए मित्रवत है और जो लोग स्वप्न देखते हैं और कार्यवाही करते हैं उन्हें यह सर्वोत्तम देने की चेष्टा करता है। जिस तरह चंद्रशेखर सुब्रमण्यम ने ब्लैक होल की खोज की। आज हम चंद्रशेखर की सीमाओं का उपयोग करके यह गणना कर सकते हैं कि सूरज कब तक चमकेगा।
जिस तरह सर सी.वी.रामन ने सागर की ओर देखा और प्रश्न किया कि सागर का रंग नीला क्यों है? उन्होंने पाया कि सागर का नीला रंग प्रकाश के आण्विक प्रकीर्णन के कारण है, पानी में प्रकाश के परावर्तन के कारण नहीं है जैसा कि अधिकांश लोग कल्पना करते हैं। इससे रामन प्रभाव का जन्म हुआ। जैसा कि अल्बर्ट आइंस्टाइन ने ब्रह्माण्ड की जटिलता से अभिभूत होकर प्रश्न किया कि ब्रह्माण्ड का जन्म कैसे हुआ। इसने प्रसिद्ध समीकरण E=mc2 को जन्म दिया। जब E=mc2 महान आत्माओं के हाथ में हो तब नाभिकीय पदार्थों से बिजली प्राप्त होती है। लेकिन जब यही समीकरण चरमपंथी राजनैतिक विचारकों के हाथ लगा तब हिरोशिमा का विध्वंस हुआ। लाखों करोड़ों व्यक्ति इस ब्रह्माण्ड में विचरण करते हैं। लेकिन पिछली सहस्राब्दि में एक महान आत्मा ने भारतीय की धरती पर अपने कदम रखे और अहिंसा धर्म के इस्तेमाल का मार्ग प्रशस्त किया। फलस्वरूप भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। सन् 1947 में भारत की स्वतंत्रता एक अकेले विचार का परिणाम थी, भारत को स्वतंत्रता चाहिए। मैं जहां कहीं जाता हूँ स्कूल के विद्यार्थियों से मिलता हूँ। आज तक मैं 5 लाख से भी अधिक विद्यार्थियों से मिल चुका हूँ। हाल ही में मैं हिमाचल प्रदेश में शिमला और उसके आसपास के क्षेत्रों के भ्रमण पर गया था जहाँ मैंने काफी स्कूली और विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ पारस्परिक विचार विमर्श किया। सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, चाचियन के दसवीं कक्षा के श्री शम्मी धीमन द्वारा पूछा गया एक प्रश्न था-विज्ञान और प्रौद्योगिक किस तरह गरीबी को मिटाकर भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बना सकती है? 1950 के दशक में खाद्य पदार्थों की अत्यधिक कमी थी। हमें भारत को भुखमरी से बचाने के लिए अटलांटिक महासागर को पार कर आने वाले गेंहू से भरे हुए जलयानों पर निर्भर रहना पड़ता है। राजनैतिक नेता श्री सी.सुब्रमण्य्ाम और एक कृषि वैज्ञानिक प्रो. एम.एस.स्वामीनाथन ने 1950 के दशक में एक प्रश्न पूछा। भारत विकसित देशों से आयात किए जाने वाले गेहूं पर कब तक निर्भर रह सकता है? अब हमें खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए। इस विचार ने प्रौद्योगिकी कृषि विज्ञान और किसानों की भागीदारी के परिणाम स्वरुप हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया जब प्रो. वर्गीज कुरियन भारत के ग्वाले के मन में ऐसे ही विचार आए तब भारत में आवश्यकता से अधिक दूध का उत्पादन होने लगा। हम अपनी आवश्यकता से अधिक दूध और दुग्ध उत्पाद पैदा करते हैं। विज्ञान क्या है? सिलसिलेवार प्रश्न पूछना और कठोर कार्य से इन प्रश्नों के उत्तर खोजना ही विज्ञान है। ये उत्तर ही प्रकृति के नियमों अथवा प्रौद्योगिकीय प्रगति को जन्म देते हैं। अतः बच्चों आपमें से जो भी विज्ञान कांग्रेस में भाग ले रहे हैं उन्हें मैं एक सुझाव दे सकता हूं। प्रश्न पूछने से कभी भी न डरो। तब तक पूछते रहो जब तक आपको संतोषजनक उत्तर न मिल जाए। केवल प्रश्न पूछने वाले दिमाग ने ही विश्व को रहने योग्य बनाया है।
कोई भी व्यक्ति केवल चिंतन करने और प्रश्न पूछने तक ही सीमित नहीं रह सकता है। समस्याओं को सुलझाने के लिए कार्यवाही आवश्यक है। जिसके लिए कठिन परिश्रम और अध्यव्यवसाय की आवश्यकता होती है। अब मैं अपने एक अनुभव से कठिन परिश्रम और अध्यव्यवसाय के परिणाम को समझाने का प्रयास करूंगा जिसका हमारे ग्रामीण विकास से गहरा संबंध है। इसका संबंध प्रो. साराभाई के अंतरिक्ष कार्यक्रम संबंधी दृष्टि से है। भारत के प्रथम उपग्रह यान की डिजाइन प्रायोजना को स्वीकृति मिल गयी थी। राकेट के प्रत्येक चरण, ऊष्मा कवच निर्देशन प्रणाली के डिजाइन की जिम्मेदारी चुने हुए प्राय्ाोजना मुखियाओं को दी गयी थी। मुझे एसएलवी-3 के चौथे चरण की जिम्मेदारी दी गई थी जो रोहिणी को कक्षा में स्थापित करने के लिए अंतिम गति देने वाला ऊपरी चरण का राकेट होता है। चौथे चरण का एसएलवी एपोजी मोटर का उपयोग करता है। इसे अल्पतम भार की स्थिति में अधिकतम प्रणोद देना चाहिए। इसमें एक क्रांतिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग होता है। इसलिए इसे मिश्रित संरचना से बनाया गया था, जिससे इसका भार कम हो जाता है। मुझे याद है कि यह 1969 के प्रारंभिक दिनों की बात थी। मुझे अहमदाबाद से प्रो. साराभाई का संदेश मिला कि वे फ्रांसीसी अंतरिक्ष संगठन के अध्यक्ष प्रो. हरबर्ट कुरियन के साथ त्रिवेन्द्रम आ रहे हैं। मुझे प्रो. कुरियन की टीम के समक्ष चौथे चरण के संबंध में एक प्रस्तुतिकरण के लिए कहा गया। जब हमारी टीम का प्रस्तुतिकरण समाप्त हुआ तब हमें ज्ञात हुआ कि एसएलवी-3 चौथे चरण पर फ्रांसीसी चौथे चरण के प्रक्षेपण यान डायमांट पी- 4 के लिए भी विचार किया जा रहा है और फ्रांसीसी संगठन एक ऐसे एपाजी राकेट मोटर की तलाश में है जिसका प्रक्षेपण भार और आकार हमारे द्वारा डिजाइन किए गए मोटर से लगभग दोगुना है। उसी बैठक में यह निर्णय लिया गया कि एसएलवी के चौथे चरण को पुनः इस पकार डिजाइन किया जाए कि वह फ्रांसीसी उपग्रह प्रक्षेपण यान और भारतीय प्रक्षेपण यान दोनों ही के लिए उपयुक्त हो। मैं उस समय की हमारी राकेट प्रौद्योगिकी की स्थिति की एक तस्वीर प्रस्तुत करना चाहूंगा। वह ड्राइंगबोर्ड और डिजाइन तैयार किए जाने की स्थिति में थी। एक भविष्य दृष्टा ऐसा था जो यह स्वप्न देखता था कि भारतीय वैज्ञानिक एक ऐसा ऊपरी चरण का राकेट तैयार करेंगे जो भारतीय तथा फ्रांसीसी प्रक्षेपण यान प्रणाली दोनों के ही अनुकूल हो। भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में उन्हें कितना अधिक विश्वास था। यह निर्णय लिया गया कि इस ऊपरी चरण का डिजाइन करना और उसे विकसित किया जाना है और तुरंत ही इस प्रायोजना पर कार्य शुरू हो गया। यह घटना हम सबके लिए उल्लेखनीय और प्रेरणादायक थी। हम पूरी लगन से इस पर कार्य करने लगे। दोनों टीमों के बीच अनेक पुनर्विवेचन आयोजित किए गए। चौथा चरण ड्राइंगबोर्ड से निकलकर विकास की अवस्था तक पहुंचा। परंतु 1971 में प्रो. साराभाई की मृत्यु हो गयी और उसी समय डायमंड पी-4 कार्यक्रम भविष्य में पुनः संरूपित किए जाने के लिए कहकर बंद कर दिया गया। जब चौथे चरण का विकास कर लिय गया और उस पर अनेक परीक्षण चल रहे थे तब क्षितिज पर एक नई आवश्यकता उभर कर सामने आई। यह आवश्यकता थी भारत एक छोटे संचार उपग्रह का निर्माण कर रहा था जिसे एक पिगी बैंक उपग्रह के रूप में एरियान कार्यक्रमों (यूरोपीय अंतरिक्ष प्रक्षेपण कार्यक्रम) के साथ समेकित किया जाना था। हमारे भारतीय एपल कार्यक्रम जो भारत का प्रथम संचार उपग्रह है एसएलवी-3, चौथा चरण पूरा फिट बैठा और 1980 के दशक में फ्रेंच गुयाना कोराऊ से यूरोपीय अंतरिक्ष प्रक्षेपण से हमारा उपग्रह अंतरिक्ष में उड़ चला। सन 1969 में प्रो. साराभाई ने जिस दृष्टि के बीज बोए थे उन्होंने उस समय वास्तविकता का रूप लियाय्ाा जब एपल उपग्रह ने भारतीय अर्थ स्टेशन को संचार प्रसारित करना प्रारंभ कर दिया। इससे प्रौद्योगिकीय टीम द्वारा प्रतिबद्ध कठोर परिश्रम के साथ एक भविष्य दृष्टा के अंतर्मन की कुछ थाह मिलती है। यहाँ तक कि हम अपने राकेट तैयार कर सकते हैं जिन्हें विदेशी धरती से उड़ाया जा सकता है। इस उपलब्धि ने देश में राकेट प्रौद्योगिकीविदों को जन्म दिया और यह वास्तव में समस्त टीम के कठोर परिश्रम और अध्यव्यवसाय का परिणाम है। आज देश में किसी भी प्रकार उपग्रह तैयार करने और उन्हें कक्षा में प्रक्षेपित करने की क्षमता है। प्रो. विक्रम साराभाई की दृष्टि को हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने पीएसएलवी और जीएसएलवी के प्रक्षेपण द्वारा पूरी तरह साकार कर दिया है। 20 सितम्बर 2004 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने पूरी तरह शिक्षा के उद्देश्य से एडूसेट का प्रक्षेपण किया है। यह उपग्रह देश के विभिन्न भागों में फैले हुए यूनीवर्सल टेलीएजूकेशन के माध्यम से 1 लाख 50 हजार से भी अधिक कक्षाओं को संपर्क प्रदान करेगा। यह ग्रामीण गरीबों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रौद्योगिकी की शक्ति का एक और उदाहरण है। किसी भी व्यक्ति के जीवन का सबसे अच्छा भाग होता है बचपन में स्कूलों में उसे पढ़ने.सीखने की अवधि। सीखने का प्रमुख वातावरण 5 वीं से 16 वीं वर्ष की आयु होती है। निश्चय ही घर में प्यर और स्नेह भी महत्वपूर्ण होता है। अच्छे पड़ोसी और मित्र भी होते हैं। लेकिन फिर दिन का अधिकांश समय स्कूल का गृहकार्य करने, अध्ययन, खाने खेलने और सोने में बीत जाता है। अतः बच्चों के लिए स्कूल में बिताया गया समय सीखने का सबसे अच्छा समय होता है और उसके लिये सबसे अच्छे वातावरण और मूल्य प्रणाली के साथ मिशनोन्मुख शिक्षा प्राप्त करने की आवश्य्ाकता होती है। इस अवस्था में उन्हें अच्छा नागरिक बनने के लिये स्कूलों में और घरों में मूल्य आधारित शिक्षा की आवश्यकता होती है। इससे मुझे एक महान अध्यापक बेस्टोलोजी की कही हुई बात याद आ जाती है ‘मुझे सात वर्ष के लिए एक बच्चा दे दीजिए, उसके बाद चाहे ईश्वर बच्चे को ले ले अथवा शैतान, वे बच्चे को बदल नहीं सकते हैं माता-पिता तथा अध्य्ाापकों के लिए स्कूल परिसर में 25,000 घंटे की मूल्य आधारित शिक्षा से वंचित रह जाता है तो कोई भी सरकार अथवा समाज एक पारदर्शी समाज अथवा न्यायनिष्ठ समाज की स्थापना नहीं कर सकता। सत्रह वर्ष की आयु तक पिता, माता और अध्यापक बच्चे को एक प्रबुद्ध नागरिक बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। मैं यह भी मानता हूं कि सीखना एक सतत् प्रक्रिया है और ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया जारी रहती हैै। मैं आपके साथ वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों की सृजनात्मकता बांटना चाहता हूँ। मानव की उड़ान और कुछ नहीं है बल्कि मानव मस्तिष्क की सृजनात्मकता है और इसमें उत्कृष्टता अर्जित करने के लिये अंतरिक्ष अन्वेषण की दिशा में अनेक संघर्ष करने पड़े हैं। सन 1890 में एक महान और सुविख्यात वैज्ञानिक लार्ड केल्विन जो लंदन की रायल सोसायटी के अध्यक्ष भी थे, ने कहा ‘कोई भी वस्तु जो हवा से भारी हो न तो उड़ सकती है और न ही उड़ाई जा सकती है। दो दशकों के भीतर राइट बंधुओं ने य्ाह साबित कर दिया कि मनुष्य उड़ सकता है, हां निश्चय ही काफी खतरे और कीमत पर। सन् 1961 में सफलतापूर्वक चंद्र अभियान पूरा होने पर वेरनर वॉन ब्राउन, एक प्रसिद्ध राकेट डिजाइनकर्ता जिन्होंने अंतरिक्ष यात्रियों के साथ कैप्सूल को प्रक्षेपित करने वाले और 1975 में चंद्रमा पर मनुष्य की चहलकदमी को वास्तविकता में बदलने वाले सैटर्न का निर्माण किया था, ने कहा था, ‘यदि मुझे अधिकार दिया जाए तो मैं शब्दकोष से असंभव शब्द को निकाल दूंगा।’ प्राचीन काल में टोलेमैक खगोलविद्या विभिन्न तारों और ग्रहों की गतिकी की गणना करने में व्यापक स्तर पर प्रयुक्त होने वाली प्रणाली है। उस समय माना जाता था कि पृथ्वी समतल है। पृथ्वी का आकार गोल है और यह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। यह सिद्ध करने में कितना वैज्ञानिक संघर्ष करना पड़ा। दो महान खगोल शास्त्रियों, कोपरनिकस और गैलीलियो ने खगोल विज्ञान के संसार को नया आयाम दिया। आज हम सहजता से यह मान लेते हैं कि पृथ्वी एक ग्लोब है जो सूर्य के चारों ओर एक कक्षा में चक्कर लगाती है और सूर्य आकाशगंगा में चक्कर लगाता है। आज जो भी प्रौद्योगिकीय प्रगति दिखाई देती है वह पिछली कुछ शताब्दियों में हुई वैज्ञानिक खोजों का परिणाम है। कभी भी मनुष्य समस्याओं से नहीं हारा है। वह असफलताओं को अपने वश में करने में लगातार प्रयासरत है। अब ‘जल’ जैसे विषय पर आते हैं। मैं सभी बच्चों तथा स्कूलों के प्रबंधन से जुड़े लोगों को एक सलाह देता हूं। मुझे उत्तरांचल के स्कूली बच्चों के आश्चर्यजनक और अद्भुत प्रयोग को जानने का अवसर मिला है। याद रखें वे सभी एक साधारण से स्कूल से हैं और उनमें से अधिकांश हिन्दी में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रयोग में पड़ोस के समुदाय में मूलभूत सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और पारिस्थितिक, पहलुओं की खोज और चित्रण के लिए मानचित्रण तकनीकों का उपयोग शामिल है। वैश्विक अवस्थितिक प्रणाली, भौगोलिक सूचना प्रणाली, अंतरिक्ष प्रतिबिंबन से लैस होकर और साथ में हाथ में लिए जा सकने वाले कम्प्यूटरों के साथ बच्चे अपने चारों ओर के वातावरण के संबंध में अपनी जानकारी को बढ़ाने के लिए आसपड़ोस की विस्तृत जानकारी युक्त मानचित्र तैयार कर रहे हैं। ये मानचित्र आगे चलकर तेजी से समाप्त होते जा रहे पानी के प्राकृतिक स्रोतों को पुनर्जीवित करने, सड़कों की स्थिति सुधारने, जल तथा बिजली के वितरण केन्द्रों के लिए बेहतर स्थलों की तलाश करने, यातायात में भीड़ का जमाव कम करने और कचरा इकट्ठा करने की बेहतर प्रणाली के निर्माण में प्रौद्योगिकीविदों की सहायता करेंगे।


(‘इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए’ जून 2006 में प्रकाषित वक्तव्य का अंश)