विज्ञान


भारत का सशक्त उपग्रह प्रमोचन यान

डॉ.पी.के.मुखर्जी

चंद्रयान-1 की सफलता के बाद मंगल ग्रह की कक्षा में यान स्थापित कर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी कामयाबी के झंडे तो गाड़े ही हैं, 18 दिसंबर 2014 को जीएसएलवी मार्क प्प्प् की एक सफल प्रयोगात्मक उपकक्षीय (सब ऑर्बिटल) उड़ान आयोजित कर विश्व को दिखा दिया कि अंतरिक्ष संबंधी उपलब्धियों में भारत किसी से कम नहीं। असल में, जीएसएलवी मार्क ।।। की यह उड़ान किसी उपग्रह को अंतरिक्ष में प्रमोचित करने के लिए नहीं बल्कि मानवयुक्त उड़ान के लिए वायुमंडल में पुनःप्रवेश की प्रौद्योगिकी में महारथ हासिल करने की दिशा में किया गया प्रयोग था जिसे क्रू माड्यूल एटमॉस्फियरिक रीएंट्री एक्सपेरिमेंट (सीएआरई) नाम दिया गया था।
जीएसएलवीमार्क प्प्प् को 18 दिसंबर 2014 को सुबह 9रू30 बजे सतीष धवन अंतरिक्ष केंद्र से छोड़ा गया था। प्रमोचन के 20 मिनट के अंदर जीएसएलवी रॉकेेट में स्थित नीतभार (पेलोड), जो एक मानवरहित क्रू माड्यूल था 126 किलोमीटर की ऊँचाई से रॉकेेट से विलग होकर वायुमंडल में जा गिरा। राकेट से विलग होते समय इस माड्यूल का वेग 5ण्3 किलोमीटर प्रति सेकंड था। 80 किलोमीटर की ऊँचाई से वायुमंडल में सफलतापूर्वक पुनः प्रवेश कर यह माड्यूल अंततः बंगाल की खाड़ी में, अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह से करीब 180 किलोमीटर की दूरी पर जा गिरा। इस माड्यूल (केयर सिस्टम) में एक विशेष रसायन मौजूद था जो समुद्री जल के संपर्क में आने पर हरे रंग की प्रतिदीप्ति उत्पन्न करता। यह ऊपर उड़ान भरते डॉर्नियर यान के लिए उस दशा में संकेत का कार्य करता जबकि यान में स्थित बीकन और जीपीएस प्रणाली किसी कारणवश कार्य न कर पाती। लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई। तटरक्षक पोत समुद्र पहरेदार ने यान से प्राप्त संकेतों को सही तरह से ग्रहण कर क्रू मॉड्यूल की पुनर्प्राप्ति में सफलता अर्जित की। इसरो द्वारा अर्जित यह सफलता अति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भविष्य में मानवयुक्त मिशनों का मार्ग प्रशस्त करेगा। मानवयुक्त मिशनों पर भेजे गए अंतरिक्षयात्रियों को धरती पर सकुशल वापस लाना तब संभव हो पाएगा। 
गौरतलब है कि इससे पहले भी इसरो ने एक अंतरिक्ष कैप्सूल को बंगाल की खाड़ी में सकुशल उतार कर एक महती सफलता हासिल की थी। यह एक महत्वपूर्ण प्रयोग था जिसे अंतरिक्ष कैप्सूल पुनर्प्राप्ति प्रयोग-1 (स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट-एसआरई-1) नाम दिया गथा। इस प्रयोग की सफलता से भारत अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों आदि को धरती पर वापस लाने की प्रौद्योगिकीय क्षमता रखने वाला अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथा राष्ट्र हो गया। लेकिन एसआरई-1 प्रयोग के पीएसएलवी-पी7 द्वारा अंजाम दिया गया था। 10 जनवरी 2007 को हुई उड़ान द्वारा पीएसएलवी-पी7 ने भारतीय उपग्रह, कार्टोसैट-2 और दो विदेशी उपग्रहों - इंडोनेशिया के लॉपान-टबसैट उपग्रह और अर्जेंटभ्ना के पेहुएनसैट-1 उपग्रह के साथ एक अन्य भारतीय उपग्रह भी भेजा था, जो वास्तव में एक अंतरिक्ष कैप्सूल था। जीएसएलवी मार्क प्प्प् की सफल उड़ान ने उपग्रहों आदि को धरती पर वापस लाने से भी बड़ी प्रौद्योगिकी क्षमता हासिल की क्योंकि इस ने मानवयुक्त मिशनों पर भेजे गए अंतरिक्ष यात्रियों को भी धरती पर सकुशल वापस लाने का मार्ग प्रशस्त किया।
उल्लेखनीय है कि जीएसएलवी मार्क-प्प्प् के तृतीय खंड में लगने वाला क्रायोजेनिक खंड वास्तव मेें एक दिखावटी या निष्क्रिय (डमी) खंड का। इस राकेट का वजन 630ण्5 टन है जो इसरो द्वारा अब तक बनाए गए रॉकेटों में सर्वाधिक है। इससे पूर्व 5 जनवरी 2014 को इसरो ने जीएसएलवी मार्क प्प् रॉकेट द्वारा 1980 किलोग्राम वजन के संचार उपग्रह जीसैट-12 को भू-समकालिक अंतरण कक्षा (जियोसिंक्रोनस ट्रांस्फर ऑर्बिट) में सफलतापूर्वक स्थापित किया था। जीएसएलवी मार्क प्प् का वजन 414ण्75 टन था। यहां इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक होगा कि भारत ने रूस से सात क्रायोजेनिक इंजन प्राप्त किए थे जो मार्क। श्रेणी के थे। इनमें से दो इंजन मार्क ।;।द्ध, तीन ।;ठद्ध तथा दो इंजन मार्क । ;ब्द्ध श्रेणी के थे। इन इंजनों में अधिकतम 2200 किलोग्राम वजन के संचार उपग्रहों को प्रमोचित करने की क्षकता मौजूद थी। इनमें से अब तक छः रूसी क्रायोजेनिक इंजनों का इस्तेमाल हो चुका है, केवल एक मार्क ;ब्द्ध श्रेणी का इंजन ही बचा है।भारत में 1994 में ‘क्रायोजेनिक-अपर स्टेज प्रोजेक्ट’ नाम से क्रायोजेनिक परियोजना आरंभ हुई थी। क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी को हासिल करने के मार्ग में आने वाली अड़चनों से दो-चार होने तथा आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाने  के उद्देश्य से ही यह परियोजना शुरू की गई थी। इसरो ने अब तक मार्क प्प् श्रेणी के क्रायोजेनिक इंजनों को बनाने में सफलता हासिल की है। मार्क प्प् श्रेणी के स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन में 2000.2500 किलोग्राम वजन के संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की क्षमता मौजूद है। स्वदेशी मार्क प्प् क्रायोजेनिक इंजन में 4000.4500 किलोग्राम के संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रमोचित करने की क्षमता मौजूद है।
हाल ही में 18 दिसंबर 2014 को संपन्न जीएसएलवी की उड़ान को शामिल किए जाने पर इस रॉकेट की अब तक नौ उड़ाने संपन्न हुई हैं। इससे पूर्व 5 जनवरी 2014 को संपन्न जीएसएलवी डी5 की उड़ान इसकी आठवीं उड़ान थी। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि 19 अगस्त 2013 को होने वाली जीएसएलवी में कुछ डिजाइन संबंधी सुधार किए गए थे। इनमें से एक महत्वपूर्ण सुधार इसके निचले ऊष्मा कवच जो वायुमंडल में पुनः प्रवेश के समय क्रायोजेनिक इंजन की रक्षा करता है की मोटाई में परिवर्तन करना था। जीएसएलवी और उसके तृतीय चरण में लगने वाले क्रायोजेनिक इंजन में हाल के वर्षों में आमजन की भी रुचि बढ़ी है। आइए जीएसएलवी और क्रायोजेनिक इंजन से जुड़े पहलुओं पर थोड़े विस्तार से जानकारी हासिल की जाए।
भूसमकालिक उपग्रह प्रमोचन यान (जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लांच व्हीकल) - एक तीन खंडों वाला रॉकेट है जिसे 36ए000 किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित भूस्थिर (जियोस्टेशनरी) कक्षा में भारतीय दूरसंचार उपग्रहों को स्थापित करने के लिए विशेष रूप से निर्मित किया गया है। भूस्थिर कक्षा में स्थापित उपग्रह करीब 3 कि.मी. प्रति सेकंड के वेग से धरती की परिक्रमा करता रहता है। लेकिन धरती के एक स्थान से देखने पर यह उपग्रह हमें स्थिर दिखाई देता है। इसका कारण यह है कि यह उपग्रह इतने ही समय (24 घंटे) में पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करता है जितने समय में पृथ्वी अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करती है। अक्सर जीएसएलवी की मदद से उपग्रहों को सीधे भूस्थिर कक्षा में न पहुंचाकर उन्हें एक मध्यवर्ती कक्षा में पहुंचाया जाता है। इस कक्षा को भू-समकालिक अंतरण कक्षा (जियोसिंक्रोनस ट्रांस्फर ऑर्बिट-जीटीओ) कहते हैं। इसके बाद उपग्रह पर लगे बूस्टर मोटरों द्वारा उन्हें भूस्थिर कक्षा में पहुँचाया जाता है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि जहाँ भूस्थिर कक्षा लगभग वृतीय होती है वहीं भू-समकालिक अंतरण कक्षा एक दीर्घवृतीय कक्षा होती है जिसका निम्नोश्च बिंदु पृथ्वी की निम्न कक्षा (लो अर्थ ऑर्बिट-एलईओ) में जबकि सर्वोच्च बिंदु 36ए000 किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित होता है। धरातल से 0.2000 किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित कक्षा को ही तो अर्थ ऑर्बिट कहते हैं।
जीएसएलवी के प्रथम खंड में ईंधन के रूप में 29 टन ठोस प्रणोदक यानी प्रोपेलेंट, जो हाइड्रॉक्सिल टर्मिनेटेड ब्यूटेडीन होता है, को भरा जाता है। इस प्रथम खंड के बाद द्रव प्रणोदक बाले चार बूस्टर रॉकेट भी जोड़े जाते हैं। द्रव प्रणोदक के रूप में असममित डाइमिथाइल हाइड्रेजीन ईंधन तथा नाइट्रोजन ट्रेटाआक्साइड का ऑक्सीकर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जीएसएलवी के दूसरे खंड में विकास नामक इंजन लगा होता है जिसमें 375 टन परिमाण में वही द्रव प्रणोदक भरा होता है जो प्रथम खंड के बूस्टर रॉकेटों में होता है। जीएसएलवी के तीसरे खंड में निम्नतापी यानी क्रायोजेनिक-यह ग्रीक भाषा के शब्द ‘क्रायोस’ से आया है जिसका अर्थ है ‘हिम-शीतल’। इसमें ईंधन के रूप में द्रव हाइड्रोजन तथा ऑक्सीकरण के रूप में द्रव ऑक्सीजन का इस्तेमाल किया जाता है। द्रव हाइड्रोजन का ताप (क्वथनांक) शून्य से -2530ब् तथा ऑक्सीजन का ताप शून्य से -1830ब् रहता है। इन्हें अलग-अलग टंकियों में भरा जाता है। इन्हें इंजन में पंप करने के लिए टर्बो पंपों, जो 42ए000 चक्कर प्रति मिनट की रफ्तार से घूमते हैं, का इस्तेमाल किया जाता है। गौरतलब है कि ठोस प्रणोदक अथवा द्रव प्रणोदक वाले इंजनों की तुलना में क्रायोजेनिक इंजन अधिक दक्ष होते हैं। प्रति किलोग्राम प्रणोदक के लिए ये कहीं अधिक प्रणोद या ठेल (थ्रस्ट) उत्पन्न करने में उत्पादन, आवाजाही और इस्तेमाल की भी अपनी अनेक समस्याएं हैं।
भारत के पास क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी नहीं थी, इसलिए 1950 के दशक की शुरुआत में ही यह निर्णय लिया गया कि भारत अमेरिका से  क्रायोजेनिक इंजन एवं क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी हासिल करेगा। लेकिन व्यावसायिक/राजनीतिक कारणों से इसमें सफलता नहीं मिली। तदनंतर, भारत ने रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) की अंतरिक्ष एजेंसी ग्लैवकॉस्मॉस से संपर्क साधा। रूस पहले तो क्रायोजेनिक इंजन की प्रौद्योगिकी को भारत को सौंपने के लिए राजी हो गया, लेकिन बाद में अमेरिकी दबाव में आकर वह मुकर गया। क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी न सही, कम से कम भारत को क्रायोजेनिक इंजन बेचने के लिए रूस अंततः राजी हो गया। सन 1998 में रूस से भारत को पहला क्रायोजेनिक इंजन प्राप्त हुआ। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है भारत को रूस से सात क्रायोजेनिक इंजन प्राप्त हुए हैं जिनमें से छः का इस्तेमाल भी हो चुका है। छठे रूसी क्रायोजेनिक इंजन को 25 दिसंबर 2010 को आयोजित जीएसएलवी की सातवीं उड़ान में इस्तेमाल किया गया था। अब रूस प्रदत्त केवल एक क्रायोजेनिक इंजन ही हमारे पास बचा है।

अब तक जीएसएलवी की आयोजित उड़ानों पर एक दृष्टि जीएसएलवी की पहली विकासात्मक उड़ान 28 मार्च 2001 को आयोजित हुई। लेकिन कोई तकनीकी गड़बड़ी आ जाने के कारण यह उड़ान विफल रही। इस गड़बड़ी या त्रुटि के निराकरण के बाद 18 अप्रैल 2001 को जीएसएलवी की दोबारा से हुई उड़ान जीएसएलवी-डी 1 सफल रही। इस उड़ान द्वारा जीएसएलवी ने 1540 किलोग्राम भार के भारत के जीसैट-1 नामक संचाल उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुँचाया। 
इसके बाद 8 मई 2003 को जीएसएलवी की दूसरी विकासात्मक उड़ान जीएसएलवी-डी2 आयोजित की गई। इस उड़ान द्वारा जीएसएलवी ने 1825 किलोग्राम भार के जीसैट-2 नामक संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाया। इन दो सफल विकासात्मक परीक्षण उड़ानों के बाद जीएसएलवी को परिचालनात्मक घोषित कर दिया गया। 
20 सितंबर 2004 को आयोजित तीसरी उड़ान, जो जीएसएलवी की पहली परिचालनात्मक उड़ान जीएसएलवी-एफ01 थी, में इस प्रमोचन यान ने 1960 किलोग्राम भार के एडुसैट उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुँचाया। जीएसएलवी की चौथी उड़ान जीएसएलवी-एफ02 18 जुलाई 2006 को आयोजित की गई। इस उड़ान में इसे 2168 किलोग्राम भार के इंसैट-4सी नामक भारतीय संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुँचाना था। लेकिन कुछ तकनीकी गड़बड़ी के चलते यह उड़ान विफल रही और इसमें सवार इंसैट-4सी उपग्रह भी नष्ट हो गया।
2 सितंबर 2007 को आयोजित जीएसएलवी की पांचवी उड़ान जीएसएलवी-एफ 04 पूर्णतया सफल रही। इस उड़ान द्वारा जीएसएलवी ने इंसैट-4सी के बदले तैयार किए गए 2160 किलाग्राम भार के इंसैट-4सी आर नामक संचार उपग्रह को भू-समकालिक अंतरण कक्षा में पहुँचाया।
15 अप्रैल 2010 को आयोजित जीएसएलवी की छठवीं उड़ान जीएसएलवी-डी3 में 2220 किलोग्राम भार के जीसैट-4 नामक संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाया जाना था। इस प्रमोचन यान में स्वदेश में ही विकसित क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया था लेकिन इंजन के प्रज्ज्वलित न होने के कारण यह मिशन विफल रहा। बाद में इसके कारण का पता लगा। दरअसल जीएसएलवी के ऑक्सीजन टर्बो पंप में खराबी आ जाने के कारण ही इंजन प्रज्ज्वलित नहीं हो पाया था।
25 दिसंबर 2010 को जीएसएलवी की सातवीं उड़ान जीएसएलवी-एफ06 आयोजित की गई। इस उड़ान द्वारा जीएसएलवी को जीसैट-5पी नामक संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुँचाया था। लेकिन प्रमोचन के 47 सेकंडों के अंदर ही जीएसएलवी में स्थित (ऑन-बोर्ड) कम्प्यूटरों तथा (स्ट्रेप-ऑन) मोटरों के नीच संचार बाधित होने के संकेत प्राप्त होने लगे। जल्दी ही जीएसएलवी अनियंत्रित होने लगा। नतीजतन प्रमोचन के 63 सेकंडों के भीतर 8 किलोमीटर की ऊँचाई पर इसे मजबूरन विस्फोटित कर देना पड़ा।
सचमुच जीएसएलवी का इतिहास सफलताओं और असफलताओं के उतार-चढ़ावों से भरा है। लेकिन अंतरिक्ष कार्यक्रमों में असफलताओं का होना कोई नई बात नहीं है। खासकर जब लक्ष्य कठिन हो तो असफलता का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन जब इरादे मजबूत हो तो जीत मजबूत इरादों की ही होती है। हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिक हमेशा से ही अपने मजबूत इरादों और अद्भुत क्षमता से पहाड़ जैसे दिखने वाले लक्ष्यों पर जीत हासिल करते आए हैं। 25 दिसंबर 2010 की असफलता के बाद पूर्व इसरो अध्यक्ष के.राधाकृष्णन ने कहा था, ‘‘हमें अपनी असफलताओं से सीखना है। ये असफलताएं हमें सफलता की ओर ले जाती हैं।’’ आशा है कि जीएसएलवी मार्क प्प्प् की सफल उड़ान से भविष्य में होने वाली और अधिक जटिल अंतरिक्ष अभियानों का मार्ग प्रशस्त होगा। चंद्रयान-2 को जीएसएलवी मार्क प्प्प् द्वारा ही अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। सूर्य अभियान के लिए भी संभवतया इस सशक्त रॉकेट का इस्तेमाल होगा।

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